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कैसे करें राजस्थान में खजूर की खेती - राज्य की सूक्ष्म एवं गर्म जलवायु में खजूर की खेती

खजूर शुष्क जलवायु में उगाया जाने वाला प्रचीनतम फलदार वृक्ष है। पाल्मेसी कुल के इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम फीनिक्स डेक्टीलीफेरा है। मानव सभ्यता के सबसे पुराने कृषि किए जाने वाले फलों में से यह एक फल है। इसकी उत्पत्ति फारस की खाड़ी मानी जाती है। दक्षिण इराक (मेसोपोटोमिया) में इसकी खेती ईसा से 4000 वर्ष पूर्व प्रचलित थी। मोहनजोदड़ों की खुदाई के अनुसार भारत-पाकिस्तान में भी ईसा से 2000 वर्ष पूर्व इसकी कृषि विद्यमान थी। पुरातन विश्व में खजूर की व्यवसायिक खेती पूर्व में सिन्धु घाटी से दक्षिण में तुर्की-परशियन-अफगान पहाड़ियों, इराक किरकुक-हाईफा तथा समुद्री तटीय सीमा के सहारे-सहारे टयूनिशिया तक बहुतायत में की जाती थी। इसकी व्यवसायिक खेती की शुरूआत सर्वप्रथम इराक में हुई। ईराक, सऊदी अरब, इरान, मिश्र, लिबिया, पाकिस्तान, मोरक्को, टयूनिशिया, सूडान, संयुक्त राज्य अमेरिका व स्पेन विश्व के मुख्य खजूर उत्पादक देश है। हमारे देश में सर्वप्रथम 1955 से 1962 के मध्य भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के क्षेत्रीय केन्द्र अबोहर द्वारा मध्यपूर्व के देशों संयुक्त राज्य अमेरिका व पाकिस्तान से खजूर की कुछ व्यवसायिक किस्मों के पौधे मंगवाए गये थे। इसके बाद अखिल भारतीय खजूर अनुसंधान परियोजना, बीकानेर द्वारा 1978 से खजूर के सकर्स आयात शुरू किया गया। राजस्थान के जैसलमेर, बाडमेर, बीकानेर, व जोधपुर आदि के शुष्क जलवायु वाले पश्चिमी क्षेत्र खजूर की खेती के लिए उपयुक्त पाए गए है। खजूर पर सामान्यतः अधिक तापक्रम व पाले का असर नही होने तथा लवण सहन करने की क्षमता के कारण राज्य का काफी बड़ा क्षेत्र खजूर की खेती के अन्तर्गत प्रभावी रूप से उपयोग में लाया जा सकता हैं। ऐसे क्षेत्र जो बहुत अधिक लवणीय हैं अथवा जहाँ जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है अथवा सिंचाई हेतु लवणीय जल ही उपलब्ध है जो अन्य फसलों के लिए उपयुक्त नहीं वहाँ पर भी इसकी खेती की जा सकती है।

केन्द्र सरकार एवं राजस्थान सरकार के प्रयासों और वैज्ञानिकों एवं कृषि विशेषज्ञों की मदद से राजस्थान के किसान पारंपरिक खेती के तरीकों के साथ-साथ आधुनिक कृषि के युग में प्रवेश कर रहे है। फलस्वरूप राजस्थान में जैतून, जोजोबा (होहोबा), खजूर जैसी वाणिज्यिक फसलें भी होने लगी है।

राज्य की सूक्ष्म एवं गर्म जलवायु खजूर की खेती के लिए वरदान साबित हो रही है। राजस्थान का उद्यानिकी विभाग उत्तर-पश्चिमी राजस्थान के शुष्क रेगिस्तानी क्षेत्रों में खजूर की खेती को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दे रहा है। खजूर एक ऐसा पेड़ है जो विभिन्न प्रकार की जलवायु में अच्छी तरह से पनपता है। हालांकि, खजूर के फल को पूरी तरह से पकने और परिपक्व होने के दौरान लम्बे समय तक शुष्क गर्मी की आवश्यकता होती है। लम्बे समय तक बादल छाए रहने और हल्की बूंदाबादी इसकी फसल को अधिक नुकसान पहुंचाती है। 

इसके फूल आने और फल के पकने के मध्य की समयावधि का औसत तापमान कम से कम एक महीने के लिए 21 डिग्री सेल्सियस से 27 डिग्री सेल्सियस अथवा इससे अधिक होना चाहिए। फल की सफलतापूर्वक परिपक्वता के लिए लगभग 3000 हीट यूनिटस की आवश्यक होती हैं। राजस्थान का मौसम इसके लिए उपयुक्त हैं।






राजस्थान सरकार ने वर्ष 2007-2008 में राज्य में खजूर की खेती की परियोजना शुरू करने की पहल की थी। जैसलमेर के सरकारी खेतों और बीकानेर में मैकेनाइज्ड कृषि फार्म के कुल 135 हेक्टेयर क्षेत्रों पर खजूर की खेती शुरू की गई। इसमें से 97 हेक्टेयर क्षेत्र जैसलमेर में और 38 हेक्टेयर क्षेत्र बीकानेर में था। राज्य में वर्ष 2008-2009 में किसानों द्वारा खजूर की खेती शुरू की गई। खजूर की खेती के लिए राज्य के 12 जिलों जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर, हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर, नागौर, पाली, जालौर, झुंझुनूं, सिरोही और चुरू का चयन किया गया। 2007-2008 में सरकारी खेतों के लिए संयुक्त अरब अमीरात से 21,294 टिशू कल्चर से उगाये गये पौधे आयात किए गए। 2008 से 2011 की अवधि में किसानों की भूमि पर खेती हेतु ऐसे ही लगभग 1,32,000 पौधे तीन चरणों में संयुक्त अरब अमीरात और ब्रिटेन से आयात किए गए थे।

वर्तमान में राज्य के किसानों द्वारा अब तक कुल 813 हेक्टेयर भूमि क्षेत्र पर खजूर की खेती की जा रही है। राज्य द्वारा वर्ष 2016-17 तक खजूर की खेती के लिए 150 हेक्टेयर से और अधिक भूमि को इसमें शामिल करने का लक्ष्य प्रस्तावित है। भारत-इजरायल के सहयोग से सागरा-भोजका फार्म पर खजूर पर अनुसंधान कार्य चल रहा है। डेट या डेट पाम (खजूर) के रूप में जाना जाने वाला फीनिक्स डाक्ट्यलीफेरा सामान्यतः पाम फेमिली के फूल वाले पौधे की प्रजातियां हैं। खाने योग्य मीठे फलों के कारण अरेकेसिये की खेती की जाती है।

खजूर की किस्मों की उपयोगिता के अनुसार वर्गीकरण


क्र.सं.उपयोगकिस्मों के अपेक्षित गुणकिस्में
1डोका फल खाने के लिएडोका अवस्था में फल कसैले न हों व मीठेबरही, हलावी, खलास, खुनेजी व सेवी
2छुहारे बनाने के लिएफलों में गूदे की मोटाई अधिक होमेडजूल, जाहिदी,खदरावी, शामरान
3पिण्ड खजूर बनाने के लिएफल तुड़ाई के समय पूर्ण डोका/डांग अवस्था प्राप्त कर लेंमैडजूल, जाहिदी,खदरावी, हलावी, खलास, शमरान व जगलूल
4पखजूर रस एवं परिरक्षित उत्पाद बनाने हेतुफलों का रंग आकर्षक लाल हो तथा उनमें महक होनी चाहिएहलावी, जगलूल, सूरिया व अतशोक

जोधपुर में टिशू कल्चर प्रयोगशाला-

खजूर की बेहतरीन किस्म उगाने के लिए राज्य सरकार द्वारा 3 मार्च 2009 को जोधपुर में अतुल लिमिटेड के साथ मिलकर एक टिशू कल्चर प्रयोगशाला की शुरूआत की गई। अप्रैल, 2012 से इस प्रयोगशाला ने टिशू कल्चर खजूर की खेती करना शुरू किया गया। राज्य सरकार द्वारा इस प्रकार के करीब 25,000 पौधों के उगने की उम्मीद की जा रही है। वर्तमान में राजस्थान में खजूर की सात किस्मों यथा बारही, खुनेजी, खालास, मेडजूल, खाद्रावी, जामली एवं सगई की खेती की जा रही है। राज्य सरकार द्वारा टिशू कल्चर तकनीक पर खजूर की खेती करने वाले किसानों को वर्ष 2014-2015 में 90 प्रतिशत अनुदान दिया गया। इसी प्रकार 2015-2016 से किसानों को टिशू कल्चर के आधार पर 75 प्रतिशत अनुदान अथवा अधिकतम प्रति हेक्टेयर 3,12,450 रूपए की राशि दी जा रही है।


भूमि व क्षारीयता-

  • खजूर की खेती ऐसी लवणीय मृदायें जिनका पी.एच. मान 8 से 9 तक हो सफलतापूर्वक की जा सकती हैं।
  • खजूर का वृक्ष भूमि में 3 से 4 प्रतिशत तक क्षारीयता सहन कर सकता है, यद्यपि जड़ों की सामान्य कार्य-शक्ति के लिए एक प्रतिशत से अधिक क्षारीयता नही होनी चाहिए।
  • भूमि में अधिक पी.एच., लवण और क्षार पौधों की वानस्पतिक वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है।
  • बलुई दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए सबसे अधिक उपयुक्त होती हैं।
  • भूमि में 2 मीटर गहराई तक कंकड़ अथवा पत्थर या कैल्शियम कार्बोनेट की सख्त परत नहीं होनी चाहिए।
  • अच्छी जल धारण क्षमता एवं जल निकास की समुचित व्यवस्था वाली खजूर की खेती के लिए उत्तम रहती है।

पौध लगाने का समय -

खजूर का वृक्ष कम से कम 40 से 50 वर्षों तक फल देता रहता है, इसलिए इसके पौधों को उचित फासले पर लगाना बहुत आवश्यक हैं। प्रायः कतार से कतार तथा पौधे से पौधें के बीच 8 मीटर का फासला रखा जाता है। इससें पौधें की समुचित फैलाव होता है और पौधों के बीच में की जाने वाली कृषि क्रियाएं सुगमतापूर्वक की जा सकती है। 

इस प्रकार एक हैक्टर में लगभग 156 पौधे लगाये जा सकते हैं। खजूर एकलिंगी पेड़ होने से नर व मादा पुष्पन अलग-अलग पेड़ों पर आते है। इसलिए खेत में परागण हेतु नर पेड़ों का होना आवश्यक है। एक नर पेड़ से 10-15 मादा पेड़ों के लिए पर्याप्त परागकण उपलब्ध हो सकते है।

पौधें लगाने के लिए 1 मीटर लम्बे, 1 मीटर चौड़ें व 1 मीटर गहरे गड्ढ़े पौध लगाने के एक माह पहले खोद लेने चाहिए। गड्ढ़ों में ऊपर की उपजाऊ मिट्टी तथा 20 किलो ग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद, 1.60 किलो ग्राम सिंगल सुपर फाॅस्फेट एवं 250 ग्राम क्यूनालफाॅस 1.5 प्रतिशत चूर्ण या फैनवलरेट 0.4 प्रतिशत चूर्ण मिलाकर गड्ढ़े को भर देना चाहिए। 

पौधे लगाने से पहले गड्ढ़ों में पानी देना चाहिए ताकि मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाये। पौधों को लगाते समय थैली को पैंदें से काट लें। इसके बाद थैली में नीचे आधे ऊपर तक चीरा (कट) लगा दे। थैली के नीचे हाथ रखकर थैली को पकड़कर गड्ढ़े के बीच में रख कर चारों तरफ मिट्टी से दबा दें। पौधे लगाते समय ध्यान रखना चाहिए कि पौधे के बल्ब का केवल 3/4 हिस्सा मिट्टी के अन्दर रहे तथा ध्यान रहे कि क्राउन मिट्टी में नहीं दबे। इसके बाद पौधों की अच्छी तरह सिंचाई कर देनी चाहिए।

खजूर में सिंचाई प्रबन्धन -

मिट्टी की संरचना एवं जलधारण क्षमता सिंचाई की आवश्यकता को बहुत हद तक प्रभावित करती है। बलुई भूमि में सिंचाई की आवश्यकता दोमट एवं चिकनी भूमि की अपेक्षा बहुत अधिक होती है। खजूर के पौधों में समुचित वानस्पतिक वृद्धि एवं फल प्राप्त करने के लिए भूमि में 2 मीटर तक नमी रहनी चाहिए। टिश्यू कल्चर (ऊतक संर्वधित) से तैयार पौधों में ड्रिप पद्धति से नियमित रुप से सिंचाई देना आवश्यक होता है।

खजूर की कृषि में खाद एवं उर्वरक-

  • खजूर के 1 से 4 वर्ष के पौधों को प्रतिवर्ष 262 ग्राम नत्रजन, 138 ग्राम फास्फाॅरस और 540 ग्राम पोटाश देना जरुरी होता है। इसके साथ में अगस्त-सितम्बर माह में 25-30 किलों ग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद भी देना चाहिए। 
  • पांच वर्ष से अधिक आयु के खजूर के पौधों में प्रतिवर्ष 40-50 किलो ग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति पौधा की दर से अगस्त-सितम्बर माह में देवें। इसके अतिरिक्त 650 ग्राम नत्रजन, 650 ग्राम फाॅस्फोरस तथा 870 ग्राम पोटाश प्रति पौधा देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फाॅस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा गोबर की खाद के साथ पौधे के तने के चारों तरफ रिंग बनाकर देवें। नत्रजन की आधी मात्रा फल विकास के समय सिंचाई के साथ देना लाभप्रद रहता है। 
  • खाद प्रक्रिया को और अधिक वैज्ञानिक स्वरुप देने के लिए गोबर की खाद आधी-आधी मात्रा जुलाई, अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर, फरवरी, मार्च तथा अप्रेल में देना अधिक लाभप्रद रहता है। इसी प्रकार फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा को चार हिस्सों में बांटकर जुलाई, नवम्बर, फरवरी व अप्रेल में देना चाहिए। इसके अलावा भूमि परिक्षण के आधार पर बोरोन, मैबनीज तथा लोहे का छिड़काव पौधों को स्वस्थ एवं फलदायक बनाने में लाभप्रद रहता है। 

खजूर में परागण -

खजूर मे नर एवं मादा पुष्पक्रम अलग-अलग पौधों पर आते हैं तथा परागण नर पेड़ों से मादा पेड़ों में हवा द्वारा जाने से परागण सम्पन्न होता है। प्राकृतिक रुप से परागण हेतु खेत में आधे नर एवं आधें मादा पेड़ होने चाहिए, लेकिन इससें प्रति हैक्टर उपज काफी कम हो जाती है। 

कृत्रिम परागण-

अच्छे उत्पादन के लिए कृत्रिम परागण किया जाता है, इस हेतु खेत में लगभग 5 प्रतिशत नर पेड़ पर्याप्त होते है। कृत्रिम परागण के लिए परागकणों को रुई के फाहों की सहायता से मादा पुष्पक्रमों पर पुष्पों के खिलने के तुरन्त पश्चात् प्रातःकाल छिटकका कर सकते है। मादा पुष्पक्रमों को जो तुरन्त ही खिले हो, परागकणों में डुबोये गए रुई के फाहो से दो तीन दिन तक परागित करे या नर पुष्पक्रमों की लडियों को काटकर खुले मादा पुष्पक्रम के माध्यम में उल्टी करके हल्के से बांध दी जाती हैं जिससे उनमें से परागकण शनै:-शनै: गिरते रहें। फाहों द्वारा परागण प्रक्रिया हर मादा पुष्पक्रम में कम से कम 2-3 दिन तक लगातार करनी चाहिए। परागकणों को कुछ समय बाद परागण हेतु संग्रहित भी किया जा सकता है। इसके लिए ताजे एवं पूर्ण रुप से खुले हुए नर पुष्पक्रमों को अखबार के कागज पर झाड़कर एकत्रित कर लेते हैं। इसके पश्चात् उनको बारीक छलनी से छान लेते हैं जिससे अनावश्यक रुप से उनमें विद्यमान पुष्पक्रमों के अवशेष इत्यादि अलग हो जाएं। तत्पश्चात उनको 6 घण्टे सूर्य की रोशनी में तथा 18 घण्टे छाया में सुखा लेते है, जिससे भण्डारण में उनकों फफूंदी द्वारा हानि न हो। सुखाए गए परागकणों को काँच की शीशियों में कमरे के सामान्य तापक्रम पर 8 सप्ताह के लिए तथा रेफ्रीजरेटर में 9 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर लगभग 1 वर्ष तक संग्रहित किया जा सकता है। 

खजूर में कीट व व्याधि की रोकथाम -

मिथ्याकंड (ग्रफियोल) -

अन्य फलदार पौधों की अपेक्षा खजूर के वृक्षों में बीमारियों का कम प्रकोप होता हैं। खजूर की बीमारियों में प्रमुख ग्रफियोला या रुमट है जो प्रायः अधिक आर्द्रता की परिस्थिति में अधिक होती है। यह ग्रफियोला फिनिसिस नामक फफूंद से होती है। पत्तियों की दोनों सतहों पर भूरे रंग के असंख्य धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इस रोग से पूर्ण ग्रसित पत्तियां सूख जाती हैं। इसके नियंत्रण हेतु प्रभावित पत्तियों को काटकर नष्ट कर देना चाहिए। तांबायुक्त फफूंदनाशी या डाईथेन एम-45 या फाइटोलान (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) का छिड़काव इस रोग की  काफी रोकथाम करता है।

आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग (लीफ स्पोट) -

यह रोग आल्ट्रनेरिया फंगस द्वारा होता है। जिससे पत्त्तियों की दोनों सतहों पर अनियमित आकार के भूरे काले रंग के धब्बे हो जाते हैं। उग्र अवस्था में ये रोग पौधे के तने व फलों को भी प्रभावित करता है। इसकी रोकथाम के लिए अधिक प्रभावित पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए तथा पौधों पर कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम या मेन्कोजेब 2 ग्राम प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर दो या तीन छिड़काव करना चाहिए।

फल विगलन रोग (फ्रूट रोट)- 

गुच्छों में हवा के कम संचार व अधिक वर्षा के कारण फलों के गलने की समस्या उत्पन्न हो जाती है। गुच्छों की छंटाई एवं सधाई द्वारा वायु सुचार की समुचित व्यवस्था करके उन पर पकने से पूर्व कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव करके इस रोग का नियन्त्रण किया जा सकता है।

दीमक-

इसके नियंत्रण हेतु प्रत्येक माह या दो माह के अंतराल पर क्लोरपायरीफोस (1 मिलीलीटर प्रति 1 लीटर पानी) के घोल को थांवलों में अच्छी तरह से सिंचाई करें। खजूर के पूर्ण विकसित वृक्षों के तने पर दीमक का प्रकोप होने से बड़े-बड़े सुराख बन जाते हैं तथा तना खोखला होने लगता है। इनमें फूल या फल भी कम आने लगते है। नियंत्रण हेतु दीमकग्रस्त तने को भली भांति साफ करके कार्बाफ्युराॅन चूर्ण (4 प्रतिशत) का तने पर लेप दें अथवा क्लोरपायरीफोस का छिड़काव करना चाहिए।

स्केल कीट -

खजूर का शल्क अथवा स्केल कीट भी बहुत हानिकारक होता है। यह निम्फ व मादा पत्तियों का रस चूसकर क्षति पहुंचाते है। अधिक प्रकोप होने पर ये कीट कच्चे फलों को भी खाते है। इनके प्रकोप से पौधों के सामान्य विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, फल छोटे रह जाते हैं, ठीक से पक नहीं पाते और सूख जाते है। नियंत्रण हेतु इस कीट से अधिक प्रभावित पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए तथा प्रभावित पत्तियों पर डायमेथोएट 30 ई.सी. 1 मि.ली. अथवा मोनोक्रोटोफाॅस 1.5 मि.ली. अथवा प्रोफेनोफोस 50 ई.सी. 3 मि.ली. लीटर अथवा डीडीवीपी 0.5 मिली लीटर प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

फल तुड़ाई -

फल पकने के समय वर्षा प्रारंभ हो जाने से पेड़ पर पूर्ण परिपक्वता प्राप्त करना संभव नहीं हैं। अतः अधिकतर जगह फलों के गुच्छों को डोका अवस्था में ही पेड़ों से काट लिया जाता हैं। कम वर्षा वाले क्षेत्र में भी तुड़ाई प्रायः डांग अवस्था में की जाती है। छुहारा बनाने के लिए भी डोका अवस्था में ही फलों को तोड़ा जाता है। फलों को तुड़ाई के बाद प्लास्टिक क्रेटस में रखकर चाकू से गुच्छों से अलग करके छंटनी करनी चाहिए। फलों की छंटनी के उपरान्त अच्छी पैकिंग करके बाजार भेजना चाहिए या उपयुक्त तापक्रम पर भण्डारित रखना चाहिए। पके फलों को टोकरियों में 5.5 से 7.2 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 85 से 90 प्रतिशत आपेक्षित आर्द्रता में शीतगृह में 2 सप्ताह तक भण्डारित करके रखा जा सकता है। 

छुहारा व पिंड खजूर बनाना- 

  • छुहारा बनाने हेतु पूर्ण डोका फलों को अच्छी प्रकार से धोने के पश्चात 5-10 मिनट गर्म पानी में उबालकर 45-50 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर वायु संचारित भट्टी में 70-90 घंटों के लिए सुखाते हैं। इन्हे सूर्य की धूप में भी सुखाया जा सकता है। छुहारों को 1 से 11 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 65-75 प्रतिशत सापेक्षित आर्द्रता में 13 महीनों तक भण्डारित किया जा सकता हैं।
  • पिंड खजूर बनाने हेतु पूर्ण डोका अवस्था अथवा डांग अवस्था के फलों को 20-30 सैकण्ड के लिए उबलते पानी में डुबोने के पश्चात 38 से 40 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर वायु संचारित भट्टी में रखते हैं। 

खजूर की कृषि में उपज -

  • खजूर के वृक्ष को पूर्ण फलत आने में लगभग 4 वर्ष का समय लग जाता है। 
  • टिश्यू कल्चर से तैयार पौधों में तीसरे वर्ष ही फल आना शुरु हो जाते हैं। 
  • प्रारंभ के वर्षों में फलों की उपज कम होती है, वृक्षों की आयु में वृद्धि के साथ उपज में भी बढ़ोत्तरी होती जाती है। दस वर्ष की आयु के वृक्षों से प्रति वृक्ष औसतन 50 से 70 किलोग्राम फलों की उपज होती है जो 15 वर्ष की आयु के वृक्षों से लगभग 75 से 200 किलोग्राम तक हो जाती है। 
  • खजूर प्रौद्योगिकियों का प्रयोग करके इजरायल खजूर के पूर्ण विकसित पौधे से 400 किलोग्राम प्रति पेड़ तक उपज प्राप्त की जा सकती है। 

खजूर के फलों सें लाभ-

खजूर के फलों को उचित समय पर तुड़ाई करके उन्हेउन्हें बाजार में बेचने के लिए भेज देना चाहिए। फलों को साफ व श्रेणिकरण करके बेचने पर अधिक लाभ कमाया जा सकता है। इससे एक हैक्टर में लगभग 79630 रुपयों का लाभ कमाया जा सकता है।

अंतर-काश्त -

  • खजूर के नये बगीचे में वृक्षों की कतारों के बीच खाली स्थान में अंतर-काश्त सफलतापूर्वक की जा सकती है। इससे वृक्षों के फलत में आने से पूर्व के वर्षों में न केवल अतिरिक्त आय प्राप्त की जा सकती है अपितु इससें प्रभावी खरपतवार नियंत्रण एवं जल व मृदा प्रबंध में काफी सहायता मिलती हैं। 
  • दलहनी फसले जैसे- चना, मूंग, मोठ, चंवला, ग्वार व उड़द, सब्जियां, चारे वाली फसल जैसें- रिजका, बरसीम व छोटे आकार के फल जैसे- पपीता के पौधे अंतरकाश्त के लिए उगाए जा सकते है। अंतरकाश्त में ली जाने वाली फसलों के लिए पोषक तत्वों व जल की अतिरिक्त व्यवस्था करनी होती है।

 खजूर (Date Palm)

वानस्पतिक जगत वर्गीकरण

जगत-पादप (प्लेन्टी)
अपर विभाग- एन्जिओस्पर्मस
वर्ग- मोनोकॉट
गण- ऐरकेल्स
कुल- ऐरकेसी
वंश- फीनिक्स
जाति- फीनिक्स डेक्टीलीफेरा

उत्पत्तिः

खजूर शुष्क जलवायु में उगाया जाने वाला प्राचीनतम फलदार वृक्ष है। यह मानव सभ्यता के सबसे पुराने खेती किये जाने वाले फलों में से एक है। पाल्मेसी कुल के इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम फीनिक्स डेक्टीलीफेरा है। इराक, सऊदी अरब, इरान, मिश्र, लीबिया, पाकिस्तान, मोरक्को, टयूनिशिया, सूडान, संयुक्त राज्य अमेरिका व स्पेन विश्व के मुख्य खजूर उत्पादक देश हैं। इसमें से एक तिहाई क्षेत्र इराक में है।

उपयोगः

खजूर के फलों में 70 प्रतिशत तक कार्बोहाइड्रेट होता है। इसकी अधिकांश किस्मों में शर्करा ग्लूकोज व फ्रक्टोज के रूप में होती है । यह खून की कमी व अंधेपन जैसी बीमारियों से बचाता है। यह पोषण, दस्तावर व ऊर्जा के स्रोत के रूप में जाना जाता है। खजूर के फलों के गूदे में लगभग 20 प्रतिशत नमी के अतिरिक्त 60-64 प्रतिशत शर्करा, लगभग 2.5 प्रतिशत रेशा, 2 प्रतिशत प्रोटीन, 2 प्रतिशत से कम वसा, 2 प्रतिशत से कम खनिज तत्त्व (लोहा, पोटेशियम, कैल्शियम तांबा, मैग्नीशियम, क्लोरीन, गंधक, फास्फोरस इत्यादि) तथा 2 प्रतिशत से कम पैक्टिक पदार्थ होते हैं। खजूर के फलों  में विटामिन-ए, विटामिन बी-1 (थायमीन) तथा विटामिन बी-2 (राइबोफ्लेविन) भी पाए जाते हैं।

पोषक मानः

खजूर उच्च पोषक गुणवत्तायुक्त खाद्य पदार्थ का अच्छा स्रोत है। खजूर के फल काफी पौष्टिक होते हैं। अन्य फलों व भोज्य पदार्थों की तुलना में खजूर का कैलोरी मान निम्न प्रकार हैः
फल/भोज्य पदार्थ        
  • केला                            -         970 कैलोरी प्रति कि.ग्रा  
  • एप्रीकोट- खुबानी          -        520 कैलोरी प्रति कि.ग्रा
  • संतरा                           -        400 कैलोरी प्रति कि.ग्रा
  • पका चावल                   -        1800 कैलोरी प्रति कि.ग्रा
  • गेंहू ब्रेड                         -        2295 कैलोरी प्रति कि.ग्रा
  • मीट                             -        2245 कैलोरी प्रति कि.ग्रा
  • खजूर                           -        3000 कैलोरी प्रति कि.ग्रा

इसमें उपयुक्तता को देखते हुए कृषकों के खेतों पर खजूर पौधरोपण कार्यक्रम लिया गया है। इस हेतु राजहंस नर्सरी, चौपासनी, जोधपुर पर खजूर के टिश्यू कल्चर से उत्पादित प्राईमरी हार्डन्ड पौधे आयात किये जाकर इनकी 9 माह तक सैकेण्डरी हार्डनिंग करके पौध रोपण हेतु कृषकों को उपलब्ध कराये जा रहे है। कार्यक्रम अन्र्तगत चयनित ज़िलों- जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, चूरू व नागौर ज़िलों में 2009-10 से 2016-17 तक लगभग 820 हैक्टेयर क्षेत्र में खजूर की मेडजूल, बरही, खुनैजी, खलास, व नर किस्मों घनामी व अलइन सिटी किस्मों के फल बगीचों की स्थापना की गयी है।

राज्य में 135 हैक्टर क्षेत्र में राजकीय फामर््स एवं 845 हैक्टर क्षेत्र में कृषको के खेतो पर खजूर के फल बगीचों की स्थापना करवायी गयी है। आगामी तीन वर्ष का लक्ष्य 600 हैक्टर रखा गया है।

जलवायु-

खजूर की खेती मुख्यतः शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र जहां पर अत्यधिक गर्मी, कम वर्षा व बहुत कम आर्द्रता वाले क्षेत्रों में की जाती है। अन्य फलदार पौधों की तुलना में खजूर में तेज हवाओं से नुकसान नहीं होता। यह तेज, गर्म व धूल भरी आंधी को भी सहन कर सकता है। फूल आते समय तेज हवा परागण को नुकसान पहुंचा सकती है। खजूर के फूलों एवं फलों के समुचित विकास के लिये गर्म एवं शुष्क जलवायु आवश्यक है। इसके पौधों में गर्मियों में 50 डिग्री सेल्सियस व सर्दियों में माइनस 5 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान को सहन करने की क्षमता है। खजूर के फलों के पकने के लिये 4000 से 5000 ताप इकाइयों की आवश्यकता होती है। ऊष्मा इकाईयों का संचयन विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग होता है। जैसलमेर तथा बीकानेर क्षेत्र में परागण से फलों की तुड़ाई के मध्य क्रमशः 170 से 150 वर्षा रहित दिन उपलब्ध हो पाते हैं तथा इस अवधि में क्रमशः लगभग 3844 से अधिक व 4080 ऊष्मा इकाइयों का संचयन हो पाता है। अबोहर, जोधपुर व कच्छ क्षेत्र में क्रमशः लगभग 3309, 3500 व 2656 ऊष्मा इकाइयों का संचयन हो पाता है। इन क्षेत्रों में फल डोका अवस्था तक पक पाते हैं, इसके बाद वर्षा प्रारम्भ हो जाने से फलों को इसी अवस्था में तोड़ना पड़ता है।
देश के खजूर उत्पादन योग्य क्षेत्रों को चार मुख्य भागों में बांटा जा सकता है जो निम्न वरीयता क्रम में आते हैं-
  •     जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर व जोधपुर ज़िलों के अधिक शुष्क पश्चिमी भाग।
  •     कच्छ का समुद्र तटीय क्षेत्र तथा सौराष्ट्र का कुछ भाग।
  •    जोधपुर, बीकानेर तथा बाड़मेर के पूर्वी भाग और नागौर, चूरू व श्रीगंगानगर ज़िलों के पश्चिमी भाग।
  •    अबोहर, सिरसा, श्रीगंगानगर, चूरू ज़िलों के पूर्वी भाग व सीकर ज़िले का पश्चिमी भाग।

राजस्थान राज्य के पश्चिमी क्षेत्रों में गर्मियों में अत्यधिक गर्मी, सर्दियों में पाले का प्रकोप तथा मिट्टी व सिंचाई जल में लवणों की अधिकता कृषि क्षेत्र की मुख्य समस्याएं हैं। इस क्षेत्र की विषम जलवायुवीय स्थितियां समय-समय पर फसल उत्पादन व उत्पादकता को प्रभावित करती रहती है। परिणामस्वरूप राज्य के पश्चिमी क्षेत्र के कृषकों को हमेषा अच्छी आमदनी के लिये फसल चयन के विकल्प की तलाश रहती आयी है। खजूर के पौधे के अत्यधिक गर्मी को सहन करने की क्षमता, माइनस 3-4 डिग्री तापक्रम तक पाले का विशेष प्रभाव नहीं होने तथा लवणीय-क्षारीय जल व अधिक मृदा पी.एच. पर उत्पादन देने की क्षमता के कारण राज्य के पश्चिमी क्षेत्र के लिये खजूर महत्वपूर्ण फसल है।
खजूर के विभिन्न जैविक, अजैविक कारकों को सहन करने की क्षमता के कारण राज्य के जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर व जोधपुर आदि शुष्क जलवायु वाले पश्चिमी क्षेत्र खजूर की खेती के लिए बहुत उपयुक्त पाए गये हैं। इन जिलों के पूर्वी भाग, नागौर, चूरू व श्रीगंगानगर जिलों के कुछ हिस्सों में भी इसकी खेती संभव है। ऐसे क्षेत्र जो बहुत अधिक लवणीय हैं अथवा जहां जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है अथवा सिंचाई हेतु लवणीय जल ही उपलब्ध है जो अन्य फसलों के लिए उपयुक्त नहीं वहां पर इसकी खेती की जा सकती है। राज्य की कृषि जलवायु के खजूर पौध रोपण हेतु उपयुक्तता के दृष्टिगत इसके क्षेत्र विस्तार हेतु तीन मुख्य कार्यक्रम क्रियान्वित किये जा रहे हैं-

राजकीय फार्म्स पर खजूर पौध रोपण-

खजूर के व्यवसायिक प्रदर्शन फार्म विकसित करने एवं पौध रोपण सामग्री की उपलब्धता बनाये रखने हेतु खजूर के टिश्यू कल्चर से उत्पादित पौधों की मातृ वृक्ष प्रोजनी विकास हेतु राजकीय फार्म सगरा-भोजका जैसलमेर एवं खारा बीकानेर पर 130 हैक्टेयर क्षेत्र में पौध रोपण किया गया है। खजूर की मेडजूल, बरही, खदरावी, खुनैजी, खलास, जामली, सगाई व नर किस्म घनामी व अलइन सिटी के 21294 पौधे राजकीय फार्म, सगरा, भोजका, जैसलमेर में 90.39 हैक्टेयर एवं मैकेनाइज्ड कृषि फार्म, खारा, बीकानेर पर 39.61 हैक्टेयर क्षेत्र में लगाये गये हैं।

कृषकों के खेतों पर खजूर पौध रोपण-


उपयुक्तता को देखते हुए कृषकों के खेतों पर खजूर पौध रोपण कार्यक्रम लिया गया है। इस हेतु राजहंस नर्सरी, चौपासनी, जोधपुर पर खजूर के टिश्यू कल्चर से उत्पादित प्राईमरी हार्डन्ड पौधे आयात किये जाकर इनकी 9 माह तक सैकेण्डरी हार्डनिंग करके पौध रोपण हेतु कृषकों को उपलब्ध कराये जा रहे है। कार्यक्रम अन्र्तगत चयनित ज़िलों - जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, चूरू व नागौर ज़िलों में 2009-10 से 2016-17 तक लगभग 820 हैक्टेयर क्षेत्र में खजूर की मेडजूल, बरही, खुनैजी, खलास, व नर किस्मों घनामी व अलइन सिटी किस्मों के फल बगीचों की स्थापना की गयी है।



राज्य के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र की कृषि जलवायु के खजूर की खेती के लिये बहुत आकर्षक लगते हैं। फल खाने में कुरकुरे एवं स्वादिष्ट होते है। इसके फल डोका अवस्था में ताजा खाने हेतु उपयुक्त है। फल का औसत वजन 10.2 ग्राम तथा उनमे कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 43 प्रतिशत पाया जाता है तथा औसत उपज 40-60 किग्रा प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है।

टिश्यू कल्चर प्रयोगशाला स्थापना-

राज्य में खजूर की खेती की व्यापक संभावनाओं को देखते हुए टिश्यू कल्चर तकनीक से व्यवसायिक स्तर पर पौधे उत्पादन हेतु पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप आधार पर राजहंस नर्सरी चौपासनी, जोधपुर पर टिश्यू कल्चर प्रयोगशाला की स्थापना की गयी है। इस टिश्यू कल्चर प्रयोगशाला से खजूर की खेती को बढ़ावा दिये जाने हेतु टिश्यू कल्चर से तैयार पौधों की उपलब्धता हो सकेगी। इस हेतु राजस्थान हॉर्टीकल्चर डवलपमेंट सोसायटी एवं निजी भागीदारी फर्म मै. अतुल लि. वलसाड़, गुजरात द्वारा ‘‘अतुल राजस्थान डेटपाल्म लिमिटेड’’ का कम्पनी एक्ट में गठन किया गया है । खजूर के टिश्यू कल्चर तकनीक से पौधे तैयार करने के लिये आवश्यक प्रोटोकाल व अन्य तकनीकी कार्य निजी भागीदारी फर्म मै. अतुल लि. द्वारा संयुक्त अरब अमीरात कृषि विश्वविद्यालय के तकनीकी सहयोग से उपलब्ध कराये जाकर खजूर के पौधे तैयार किये जा रहे हैं।

खजूर पौध रोपण अनुदान-

खजूर के टिश्यू कल्चर के उत्पादित खेत में रोपण योग्य सैकेण्डरी हार्डन्ड पौधों की लागत का 75 प्रतिशत (अधिकतम रु 1950/- प्रति पौधा) अनुदान देय है। एक कृषक को न्यूनतम 0.5 हैक्टेयर क्षेत्र व अधिकतम 4 हैक्टेयर क्षेत्र तक अनुदान देय है।
खजूर के पौधों में उर्वरक एवं कीटनाशी प्रबन्धन हेतु तीन वर्षों में रु 8250/- प्रति हैक्टेयर अनुदान देय है। अनुदान की 60 प्रतिशत राशि रु 4950/- प्रथम वर्ष एवं द्वितीय वर्ष में 75 प्रतिशत पौधे जीवित होने की दशा में शेष 40 प्रतिशत राशि रु 3300/- देय है।

खजूर की उन्नत किस्में-


बरही-


यह किस्म अधिक पैदावार देने वाली है। इस किस्म के फल मध्यम आकार के व डोका अवस्था में सुनहरे पीले रंग के होते हैं एवं फल खाने में मीठे, मुलायम एवं स्वादिष्ट होते हैं जो इसकी अन्य किस्मों से अलग पहचान बनाते है। फल का औसत वजन 13.6 ग्राम तथा उनमें कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 31.5 प्रतिशत पाया जाता है यह मध्यम देरी से पकने वाली किस्म है। औसत उपज 100-150 किग्रा प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है। इसके पके फल काफी मुलायम होते हैं व इस अवस्था पर वर्षा होने से नुकसान होता है। इससे सकर्स का उत्पादन कम, सामान्यतः 3-5 होता है।

खुनेजी-


यह किस्म जल्दी पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म के फल डोका अवस्था मे लाल रंग के एवं मीठे होते हैं जो देखने में बहुत आकर्षक लगते हैं। फल खाने में कुरकुरे एवं स्वादिष्ट होते है। इसके फल डोका अवस्था में ताजा खाने हेतु उपयुक्त है । फल का औसत वजन 10.2 ग्राम तथा उनमे कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 43 प्रतिशत पाया जाता है तथा औसत उपज 40-60 किग्रा प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है।

जामली-


यह किस्म मध्यम से देरी में पकने वाली एवं अधिक पैदावार देने वाली है। फलों का रंग सुनहरा पीला होता है। पूर्ण डोका अवस्था में फल खाने में मुलायम एवं मीठे होते हैं। कुल घुलनषील ठोस पदार्थ 32 प्रतिशत पाया जाता है तथा औसत उपज 80-100 किग्रा प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है। इस किस्म में गुच्छे का अधिकतम वजन 13.7 कि.ग्रा. तक पाया गया है।

खदरावी-


इस किस्म के पेड़ वृद्धि में छोटे होते हैं। इस किस्म के फल डोका अवस्था में पीला हरापन लिए होते हैं तथा कसेले होते हैं, आकार में लम्बे, शीर्ष चोडे़ तथा आधार पर हल्के चपटे होते हैं। फल का औसत वजन 12.9 ग्राम तथा उनमें कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 36 प्रतिशत पाया जाता है। फलों की परिपक्वता की अवधि मध्यम होती है। डोका के बाद की अवस्थाओं में फलों को वर्षा एवं अधिक वातावरणीय नमी से नुकसान होता है। यह किस्म पिण्ड खजूर बनाने के लिए उपयुक्त होती है। फलों की औसत उपज 60 कि.ग्रा. प्रति पौधा होती है।

सगई-


इस किस्म के फल पीले रंग के होते हैं एवं पूर्ण पकने पर ही खाने योग्य होते हैं। फल खाने पर खस्खसाहट (Astrigence) पैदा करते हैं एवं ज्यादा स्वादिष्ट नहीं होते हैं। औसत उपज 60-100 किग्रा प्रति पौधा की दर से प्राप्त होती है।

खलास-


इसके फल डोका अवस्था में पीले मीठे तथा पिण्ड अवस्था में सुनहरे भूरे होते हैं। फल गहरे पीले रंग व आकार में लम्बे, औसत वजन 15.2 ग्राम तथा उनमें कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 25 प्रतिशत पाया जाता है। इसकी औसत उपज 60-80 किग्रा प्रति पौधा तक प्राप्त होती है। फलों के परिपक्वता की अवधि मध्यम होती है। इसके फल पूर्ण डोका अवस्था पर मीठे ताजा खाने योग्य साथ ही पिण्ड हेतु उपयुक्त है। इस किस्म में कीट एवं रोगों का प्रकोप ज्यादा होता है।

मेडजूल-


इस किस्म की उत्पत्ति मोरक्को से हुई है। इस किस्म के फलों का रंग डोका अवस्था में पीला नारंगीपन लिए होता है, लेकिन इस अवस्था में फल कसैले होते हैं। फल बडे़ आकार के 20 से 40 ग्राम एवं आकर्षक होते हैं तथा फल देर से पककर तैयार होते हैं। यह छुआरा बनाने के लिए अच्छे रहते हैं। फल का औसत वजन 22.80 ग्राम तथा उनमें कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 34.5 प्रतिशत होती है। इस किस्म की औसत उपज 75-100 किग्रा प्रति पौधा तक प्राप्त होती है।

धनामी मेल (नर किस्म)-


इस किस्म के पौधे में 10-15 फूल आते हैं तथा प्रत्येक फूल में औसत 15-20 ग्राम परागकण निकलते हैं। यह किस्म अधिक मात्रा में परागकण प्राप्त करने के लिए उपयुक्त है। परन्तु इस किस्म में परागकण 8-10 दिन देरी से प्राप्त ह¨ते हैं।

मदसरी मेल (नर किस्म)-


इस किस्म के पौधे में 3-5 फूल आते हैं तथा प्रत्येक फूल में औसत 3-6 ग्राम परागकण निकलते हैं।

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