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राजपूताना में 1857 की क्रांति -

सूत्रपात एवं विस्तार-

1857 की क्रांति प्रारम्भ होने के समय राजपूताना में नसीराबाद, नीमच, देवली, ब्यावर, एरिनपुरा एवं खेरवाड़ा में सैनिक छावनियाँ थी। इन 6 छावनियों में पाँच हजार सैनिक थे किन्तु सभी सैनिक भारतीय थे। मेरठ में हुए विद्रोह (10 मई, 1857) की सूचना राजस्थान के ए.जी.जी. (एजेन्ट टू गवर्नर जनरल) जार्ज पैट्रिक लारेन्स को 19 मई, 1857 को प्राप्त हुई। सूचना मिलते ही उसने सभी शासकों को निर्देश दिए कि वे अपने-अपने राज्य में शान्ति बनाए रखें तथा अपने राज्यों में विद्रोहियों को न घुसने दें। यह भी हिदायत दी कि यदि विद्रोहियों ने प्रवेश कर लिया हो तो उन्हें तत्काल बंदी बना लिया जावे। ए.जी.जी. के सामने उस समय अजमेर की सुरक्षा की समस्या सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि अजमेर शहर में भारी मात्रा में गोल बारूद एवं सरकारी खजाना था। यदि यह सब विद्रोहियों के हाथ में पड़ जाता तो उनकी स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ हो जाती। अजमेर स्थित भारतीय सैनिकों की दो कम्पनियाँ हाल ही में मेरठ से आयी थी और ए.जी.जी. ने सोचा कि सम्भव है यह इन्फेन्ट्री (15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री) मेरठ से विद्रोह की भावना लेकर आयी हो, अतः इस इन्फेन्ट्री को नसीराबाद भेज दिया तथा ब्यावर से दो मेर रेजीमेन्ट बुला ली गई। तत्पश्चात् उसने डीसा (गुजरात) से एक यूरोपीय सेना भेजने को लिखा।


क्रांति के निम्न कारण -

राजस्थान में क्रांति की शुरुआत नसीराबाद से हुई, जिसके निम्न कारण थे -


(1) ए.जी.जी. ने 15वीं बंगाल इन्फेन्ट्री जो अजमेर में थी, उसे अविश्वास के कारण नसीराबाद में भेज दिया था। इस अविश्वास के चलते उनमें असंतोष पनपा।

(2) मेरठ में हुए विद्रोह की सूचना के पश्चात् अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने नसीराबाद स्थित सैनिक छावनी की रक्षार्थ फस्र्ट बम्बई लांसर्स के उन सैनिकों से, जो वफादार समझे जाते थे, गश्त लगवाना प्रारम्भ किया।  तोपों को तैयार रखा गया। अतः नसीराबाद में जो 15वीं नेटिव इन्फेन्ट्री थी, उसके सैनिकों ने सोचा कि अंग्रेजों ने यह कार्यवाही भी भारतीय सैनिकों को कुचलने के लिए की है तथा गोला-बारूद से भरी तोपें उनके विरुद्ध प्रयोग करने के लिए तैयार की गई है। अतः उनमें विद्रोह की भावना जागृत हुई।

(3) बंगाल और दिल्ली से छद्मधारी साधुओं ने चर्बी वाले कारतूसों के विरुद्ध प्रचार कर विद्रोह का संदेश प्रसारित किया, जिससे अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। वस्तुतः 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण चर्बी वाले कारतूसों को लेकर था। एनफील्ड राइफलों में प्रयोग में लिए जाने वाले कारतूस की टोपी (केप) को दाँतों से हटाना पड़ता था। इन कारतूसों को चिकना करने के लिए गाय तथा सूअर की चर्बी काम में लाई जाती थी। इसका पता चलते ही हिन्दू-मुसलमान सभी सैनिकों में विद्रोह की भावना बलवती हो गई। सैनिकों ने यह समझा कि अंग्रेज उन्हें धर्म भ्रष्ट करना चाहते हैं। यही कारण था कि क्रांति का प्रारम्भ नियत तिथि से पहले हो गया।


क्रांति का प्रारम्भ नसीराबाद छावनी से -

 

राजस्थान में क्रांति का प्रारम्भ 28 मई, 1857 को नसीराबाद छावनी के 15 वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के सैनिकों द्वारा हुआ। नसीराबाद छावनी के सैनिकों में 28 मई, 1857 को विद्रोह कर छावनी को लूट लिया तथा अग्रेंज अधिकारियों के बंगलों पर आक्रमण किए। मेजर स्पोटिस वुड एवं न्यूबरी की हत्या के बाद शेष अंग्रेजों ने नसीराबाद छोड़ दिया। छावनी को लूटने के बाद विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इन सैनिकों ने 18 जून, 1857 को दिल्ली पहुँचकर अंग्रेज पलटन को पराजित किया, जो दिल्ली का घेरा डाले हुए थी। 


नीमच टौंक की क्रांति- 

नसीराबाद की क्रांति की सूचना नीमच पहुँचने पर 3 जून, 1857 को नीमच छावनी के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने शस्त्रागार को आग लगा दी तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर हमला कर एक अंग्रेज सार्जेन्ट की पत्नी तथा बच्चों का वध कर दिया। नीमच छावनी के सैनिक चित्तौड़, हम्मीरगढ़ तथा बनेड़ा में अंग्रेज बंगलों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। यहाँ के सामन्त ने इनको रसद की आपूर्ति की। यहाँ से ये सैनिक निम्बाहेड़ा पहुँचे, जहाँ जनता ने इनका स्वागत किया। इन सैनिकों ने देवली छावनी को घेर लिया, छावनी के सैनिकों ने इनका साथ दिया। छावनी को लूटकर ये क्रांतिकारी टौंक पहुँचे, जहाँ जनता ने नवाब के आदेशों की परवाह न करते हुए इनका स्वागत किया।


टौंक से आगरा होते हुए ये सैनिक दिल्ली पहुँच गए। कैप्टन शावर्स ने कोटा, बूँदी तथा मेवाड़ की सेनाओं की सहायता से नीमच पर पुनः अधिकार कर लिया। 1835 ई. में अंग्रेजों ने जोधपुर की सेना के सवारों पर अकुशल होने का आरोप लगाकर जोधपुर लीजियन का गठन किया। इसका केन्द्र एरिनपुरा रखा गया। 21 अगस्त, 1857 को जोधपुर लीजियन के सैनिकों ने विद्रोह कर आबू में अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया। 


 यहाँ से ये एरिनपुरा आ गए, जहाँ इन्होंने छावनी को लूट लिया तथा जोधपुर लीजियन के शेष सैनिकों को अपनी ओर मिलाकर चलो दिल्ली, मारो फिरंगी के नारे लगाते हुए दिल्ली की ओर चल पड़े। एरिनपुरा के विद्रोही सैनिकों की भेंट खैरवानामक स्थान पर आउवा ठाकुर कुशालसिंह से हुई। ठाकुर कुशालसिंह, जो कि अंग्रेजों एवं जोधपुर महाराजा से नाराज थे, ने इन सैनिकों का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। 

ठाकुर कुशालसिंह आउवा का नेतृत्व- 

ठाकुर कुशालसिंह के आह्वान पर आसोप, गूलर, व खेजड़ली के सामन्त अपनी सेना के साथ आउवा पहुँच गये। वहाँ मेवाड़ के सलूम्बर, रूपनगर तथा लसाणी के सामंतों ने अपनी सेनाएँ भेजकर सहायता प्रदान की। ठाकुर कुशालसिंह की सेना ने जोधपुर की राजकीय सेना को 8 सितम्बर, 1857 को बिथोड़ा नामक स्थान पर पराजित किया। जोधपुर की सेना की पराजय की खबर पाकर ए.जी.जी. जार्ज लारेन्स स्वयं एक सेना लेकर आउवा पहुँचा। मगर 18 सितम्बर, 1857 को वह विद्रोहियों से परास्त हुआ। इस संघर्ष के दौरान जोधपुर का पोलिटिकल एजेन्ट मोक मेसन क्रांतिकारियों के हाथों मारा गया। उसका सिर आउवा के किले के द्वार पर लटका दिया गया। अक्टूबर, 1857 में जोधपुर लीजियन के क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर गए। ब्रिगेडियर होम्स के अधीन एक सेना ने 29 जनवरी, 1858 को आउवा पर आक्रमण कर दिया। विजय की उम्मीद न रहने पर कुशालसिंह ने किला सलूंबर में शरण ली। उसके बाद ठाकुर पृथ्वीसिंह ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। अन्त में, आउवा के किलेदार को रिश्वत देकर अंग्रेजों ने अपनी ओर मिला लिया और किले पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने यहाँ अमानवीय अत्याचार किए एवं आउवा की महाकाली की मूर्ति (सुगाली माता) को अजमेर ले गए।


कोटा में विप्लव -

       कोटा में राजकीय सेना तथा आम जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया। 14 अक्टूबर, 1857 को कोटा के पोलिटिकल एजेन्ट मेजर बर्टन ने कोटा महाराव रामसिंह द्वितीय से भेंट कर अंगे्रज विरोधी अधिकारियों को दण्डित करने का सुझाव दिया। मगर महाराव ने अधिकारियों के अपने नियंत्रण में न होने की बात कहते हुए बर्टन के सुझाव को मानने से इन्कार कर दिया। 15 अक्टूबर, 1857 को कोटा की सेना ने रेजीडेन्सी को घेरकर मेजर बर्टन और उसके पुत्रों तथा एक डाक्टर की हत्या कर दी। मेजर बर्टन का सिर कोटा शहर में घुमाया गया तथा महाराव का महल घेर लिया। विद्रोही सेना का नेतृत्व रिसालदार मेहराबखाँ और लाला जयदयाल कर रहे थे। विद्रोही सेना को कोटा के अधिकांश अधिकारियों व किलेदारों का भी सहयोग व समर्थन प्राप्त हो गया। विद्रोहियों ने राज्य के भण्डारों, राजकीय बंगलों दुकानों शस्त्रागारों कोषागार एवं कोतवाली पर अधिकार कर लिया। कोटा महाराव की स्थिति असहाय हो गई। वह एक प्रकार से महल का कैदी हो गया। लाला जयदयाल और मेहराबखाँ ने समस्त प्रशासन अपने हाथ में ले लिया और जिला अधिकारियों को राजस्व वसूली के आदेश दिए गए। मेहराबखाँ और जयदयाल ने महाराव को एक परवाने पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया, जिसमें मेजर बर्टन व उसके पुत्रों की हत्या महाराव के आदेश से करने एवं लाला जयदयाल को मुख्य प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त करने की बातों का उल्लेख था। लगभग छः महीने तक विद्रोहियों का प्रशासन पर नियंत्रण रहा। कोटा के जन सामान्य में भी अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। उन्होंने विद्रोहियों को अपना समर्थन व सहयोग दिया। जनवरी, 1858 में करौली से सैनिक सहायता मिलने पर महाराव के सैनिकों ने क्रांतिकारियों को गढ़ से खदेड़ दिया, किन्तु कोटा शहर को क्रांतिकारियों से मुक्त कराना अभी शेष था। 22 मार्च, 1858 को जनरल राबर्ट्स के नेतृत्व में एक सेना ने कोटा शहर को विद्रोहियों से मुक्त करवाया।


टौंक में तांत्या टोपे-

टौंक का नवाब वजीरुद्दौला अंग्रेज समर्थक था, लेकिन टौंक की जनता एवं सेना की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। सेना का एक बड़ा भाग विद्रोहियों से मिल गया तथा इन सैनिकों ने नीमच के सैनिकों के साथ नवाब के किले को घेर लिया। सैनिकों ने नवाब से अपना वेतन वसूल किया और नीमच की सेना के साथ दिल्ली चले गए। नवाब के मामा मीर आलम खाँ ने विद्रोहियों का साथ दिया। 1858 ई. के प्रारम्भ में तांत्या टोपे के टौंक पहुँचने पर जनता ने तांत्या को सहयोग दिया एवं टोंक का जागीरदार नासिर मुहम्मद खाँ ने भी तांत्या का साथ दिया, जबकि नवाब ने अपने-आपको किले में बन्द कर लिया। 


धौलपुर, भरतपुर, अलवर एवं करौली में विद्रोह- 


धौलपुर महाराजा भगवन्त सिंह अंग्रेजों का पक्षधर था। अक्टूबर, 1857 में ग्वालियर तथा इंदौर के क्रांतिकारी सैनिकों ने धौलपुर में प्रवेश किया। धौलपुर राज्य की सेना तथा अधिकारी क्रांतिकारियों से मिल गए। विद्रोहियों ने दो महीने तक राज्य पर अपना अधिकार बनाए रखा। दिसम्बर, 1857 में पटियाला की सेना ने धौलपुर से क्रांतिकारियों को भगा दिया।


1857 में भरतपुर पर पोलिटिकल एजेन्ट का शासन था। अतः भरतपुर की सेना विद्रोहियों को दबाने के लिए भेजी गई। परन्तु भरतपुर की मेव एवं गुर्जर जनता ने क्रांतिकारियों का साथ दिया। फलस्वरूप अंग्रेज अधिकारियों ने भरतपुर छोड़ दिया। मगर भरतपुर से विद्रोहियों के चले जाने पर वहाँ तनाव का वातावरण बना रहा।


करौली के शासक महाराव मदनपाल ने अंग्रेज अधिकारियों का साथ दिया। महाराव ने अपनी सेना अंग्रेजों को सौंप दी तथा कोटा महाराव की सहायता के लिए भी अपनी सेना भेजी। उसने अपनी जनता से विद्रोह में भाग न लेने व विद्रोहियों का साथ न देने की अपील की।


अलवर भी क्रांतिकारी भावनाओं से अछूता नहीं था। अलवर के दीवान फैजुल्ला खाँ की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। महाराजा बन्नेसिंह ने अंग्रेजों की सहायतार्थ आगरा सेना भेजी। अलवर राज्य की गुर्जर जनता की सहानुभूति भी क्रांतिकारियों के साथ थी।


बीकानेर-


बीकानेर महाराज सरदारसिंह राजस्थान का अकेला ऐसा शासक था जो सेना लेकर विद्रोहियों को दबाने के लिए राज्य से बाहर भी गया। महाराजा ने पंजाब में विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों का सहयोग किया। महाराजा ने अंग्रेजों को शरण तथा सुरक्षा भी प्रदान की। अंग्रेज विरोधी भावनाओं पर महाराजा ने कड़ा रूख अपनाकर उन पर नियंत्रण रखा।


मेवाड़ और वागड़ की क्रांति-


मेवाड़ के महाराणा स्वरूपसिंह ने अपनी सेना विद्रोहियों को दबाने के लिए  अंग्रेजों की सहायतार्थ भेजी। उधर महाराणा के सम्बन्ध न तो अपने सरदारों से अच्छे थे और न कम्पनी सरकार से। महाराणा अपने सामंतों को प्रभावहीन करना चाहता था। इस समय महाराणा और कम्पनी सरकार दोनों को ही एक-दूसरे की आवश्यकता थी। मेरठ विद्रोह की सूचना आने पर मेवाड़ में भी विद्रोही गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक कदम उठाए गए। नीमच के क्रांतिकारी नीमच छावनी में आग लगाने के बाद मार्ग के सैनिक खजानों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। शाहपुरा मेवाड़़ का ही ठिकाना था। शाहपुरा के शासक ने क्रांतिकारियों को सहयोग प्रदान किया। मेवाड़ की सेना क्रांतिकारियों का पीछा करते हुए शाहपुरा पहुँची तथा स्वयं कप्तान भी शाहपुरा आ गया परन्तु शाहपुरा के शासक ने किले के दरवाजे नहीं खोले। महाराणा ने अनेक अंग्रेजों को शरण तथा सुरक्षा भी प्रदान की। यद्यपि राज्य की जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध रोष विद्यमान था। जनता ने विद्रोह के दौरान रेजीडेण्ट को गालियाँ निकालकर अपने गुस्से का इजहार किया। मेवाड़ के सलूम्बर व कोठारिया के सामन्तों ने क्रांतिकारियों का सहयोग दिया। इन सामन्तों ने ठाकुर कुशालसिंह व तांत्या टोपे की सहायता की। 

बाँसवाड़ा का शासक महारावल लक्ष्मण सिंह भी विद्रोह के दौरान अंग्रेजों का सहयोगी बना रहा। 11 दिसम्बर, 1857 को तांत्या टोपे ने बाँसवाड़ा पर अधिकार कर लिया। महारावल राजधानी छोड़कर भाग गया। राज्य के सरदारों ने विद्रोहियों का साथ दिया। डूँगरपुर, जैसलमेर, सिरोही और बूँदी के शासकों ने भी विद्रोह के दौरान अंग्रेजों की सहायता की।


निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि राजपूताने में नसीराबाद, आउवा, कोटा, एरिनपुरा तथा देवली सैनिक विद्रोह एवं क्रांति के प्रमुख केन्द्र थे। इनमें भी कोटा सर्वाधिक प्रभावित स्थान रहा। कोटा की क्रांति की यह भी उल्लेखनीय बात रही कि इसमें राज्याधिकारी भी क्रांतिकारियों के साथ थे तथा उन्हें जनता का प्रबल समर्थन था। वे चाहते थे कोटा का महाराव अंग्रेजों के विरुद्ध हो जाये तो वे महाराव का नेतृत्व स्वीकार कर लेंगे किन्तु महाराव इस बात पर सहमत नहीं हुए। आउवा का ठाकुर कुषालसिंह को मारवाड़ के साथ मेवाड़ के कुछ सामंतों एवं जनसाधारण का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त होना असाधारण बात थी। एरिनपुरा छावनी के पूर्बिया सैनिकों ने भी उसके अंग्रेज विरोधी संघर्ष में साथ दिया था। जोधपुर लीजियन के क्रांतिकारी सैनिकों ने आउवा के ठाकुर के नेतृत्व में लेफ्टिनेंट हेथकोट को हराया था। आउवा के विद्रोह को ब्रिटिश सर्वोच्चता के विरुद्ध जन संग्राम के रूप में देखने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये। जयपुर, भरतपुर, टोंक में जनसाधारण ने अपने शासकों की नीति के विरुद्ध विद्रोहियों का साथ दिया। धौलपुर में क्रांतिकारियों ने राज्य प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था।


1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राजस्थान की जनता एवं जागीरदारों ने विद्रोहियों को सहयोग एवं समर्थन दिया। तांत्या टोपे को भी राजस्थान की जनता एवं कई सामन्तों ने सहायता प्रदान की। कोटा, टौंक, बाँसवाड़ा और भरतपुर राज्यों पर कुछ समय तक विद्रोहियों का अधिकार रहा, जिसे जनसमर्थन प्राप्त था। राजस्थान की जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा का खुला प्रदर्शन किया। उदयपुर में कप्तान शावर्स को बुरा-भला कहा गया, जबकि जोधपुर में कप्तान सदरलैण्ड के स्मारक पर पत्थर बरसाये। फिर भी विद्रोहियों में किसी सर्वमान्य नेतृत्व का न होना, आपसी समन्वय एवं रणनीति की कमी, शासकों का असहयोग तथा साधनों एवं शस्त्रों की कमी के कारण यह क्रांति असफल रही।

 

क्रांति का समापन-


क्रांति का अन्त सर्वप्रथम दिल्ली में हुआ, जहाँ 21 सितम्बर, 1857 को मुगल बादशाह को परिवार सहित बन्दी बना लिया। जून, 1858 तक अंग्रेजों ने अधिकांश स्थानों पर पुनः अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया। किंतु तांत्या टोपे ने संघर्ष जारी रखा। अंग्रेजों ने उसे पकड़ने में सारी शक्ति लगा दी। यह स्मरण रहे कि तांत्या टोपे ने राजस्थान के सामन्तों तथा जन साधारण में उत्तेजना का संचार किया था। परन्तु राजपूताना के सहयोग के अभाव में तांत्या टोपे को स्थान-स्थान पर भटकना पड़ा। अंत में, उसे पकड़ लिया गया और फांसी पर चढ़ा दिया। क्रांति के दमन के पश्चात् कोटा के प्रमुख नेता जयदयाल तथा मेहराब खाँ को एजेन्सी के निकट नीम के पेड़ पर सरेआम फांसी दे दी गई। क्रांति से सम्बन्धित अन्य नेताओं को भी मौत के घाट उतार दिया अथवा जेल में डाल दिया। अंग्रेजों द्वारा गठित जांच आयोग ने मेजर बर्टन तथा उसके पुत्रों की हत्या के सम्बन्ध में महाराव रामसिंह द्वितीय को निरपराध किंतु उत्तरदायी घोषित किया। इसके दण्डस्वरूप उसकी तोपों की सलामी 15 तोपों से घटाकर 11 तोपें कर दी गई। जहाँ तक आउवा ठाकुर का प्रश्न है, उसने नीमच में अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण (8 अगस्त, 1860) कर दिया था। उस पर मुकदमा चलाया गया, किंतु बरी कर दिया गया।

 

राजपूताना  में 1857 की क्रांति के परिणाम-


यद्यपि 1857 की क्रांति असफल रही किंतु उसके परिणाम व्यापक सिद्ध हुए।

1.  क्रांति के पश्चात् यहाँ के नरेशों को ब्रिटिश सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया क्योंकि राजपूताना के शासक उनके लिए उपयोगी साबित हुए थे। अब ब्रिटिश नीति में परिवर्तन किया गया।

2.   शासकों को संतुष्ट करने हेतु गोद निषेधका सिद्धान्त समाप्त कर दिया गया।

3.   राजकुमारों के लिए अंग्रेजी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाने लगा।

4.   अब राज्य कम्पनी शासन के स्थान पर ब्रिटिश नियंत्रण में सीधे आ गये। साम्राज्ञी विक्टोरिया की ओर से की गई घोषणा (1858) द्वारा देशी राज्यों को यह आश्वासन दिया गया कि देशी राज्यों का अस्तित्व बना रहेगा।

5.      क्रांति के पश्चात् नरेशों एवं उच्चाधिकारियों की जीवन शैली में पाश्चात्य प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता हैं। अब राजस्थान के राजे-महाराजे अंग्रेजी साम्राज्य की व्यवस्था में सेवारत होकर आदर प्राप्त करने व उनकी प्रशंसा करने के आदी हो गए थे।

6.      जहाँ तक सामन्तों का प्रश्न है, उसने खुले रूप में ब्रिटिश सत्ता का विरोध किया था। अतः क्रांति के पश्चात् अंग्रेजों की नीति सामन्त वर्ग को अस्तित्वहीन बनाने की रही। जागीर क्षेत्र की जनता की दृष्टि में सामन्तों की प्रतिष्ठा कम करने का प्रयास किया गया। सामन्तों को बाध्य किया गया कि से सैनिकों को नगद वेतन देवें। सामन्तों के न्यायिक अधिकारों को सीमित करने का प्रयास किया। उनके विशेषाधिकारों पर कुठाराघात कया गया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सामन्तों का सामान्य जनता पर जो प्रभाव था, ब्रिटिश नीतियों के कारण कम करने का प्रयास किया गया।

7.      क्रान्ति के बाद अंग्रेजी सरकार ने रेल्वे व सड़कों का जाल बिछाने का काम शुरू किया, जिससे आवागमन की व्यवस्था तेज व सुचारू हो सके। मध्यम वर्ग के लिए शिक्षा का प्रसार कर एक शिक्षित वर्ग खड़ा किया गया, जो उनके लिए उपयोगी हो सके।

8.      अर्थतन्त्र की मजबूती के लिए वैश्य समुदाय को संरक्षण देने की नीति अपनाई। बाद में वैश्य समुदाय राजस्थान में और अधिक प्रभावी बन गया।

9.      1857 की क्रांति ने अंग्रेजों की इस धारणा को निराधार सिद्ध कर दिया कि मुगलों एवं मराठों की लूट से त्रस्त राजस्थान की जनता ब्रिटिश शासन की समर्थक है। परन्तु यह भी सच है कि भारत विदेशी जुए को उखाड़ फेंकने के प्रथम बड़े प्रयास में असफल रहा। राजस्थान में फैली क्रांति की ज्वाला ने अर्द्ध शताब्दी के पश्चात् भी स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान लोगों को संघर्ष करने की प्रेरणा दी, यही क्रांति का महत्त्व समझना चाहिए।


1857 की क्रांति का स्वरूप-

1857 की क्रांति को लम्बे समय तक सैनिक विद्रोह या विप्लव के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा। परन्तु आधुनिक विद्वानों, इतिहासकारों एवं शिक्षाविदों के विचार-विमर्श के बाद यह माना गया कि क्रान्ति का स्वरूप केवल सैनिक विद्रोह ही नहीं था बल्कि यह राष्ट्रीय जन क्रान्ति थी। फिर भी किसी घटना पर मत विभेद होना अनुचित नहीं है। निःसन्देह 1857 का वर्ष राजस्थान सहित भारत के लिए यादगार वर्ष रहा, क्योंकि ऐसी महान घटना भारतीय इतिहास की पहली घटना थी। भावी स्वतन्त्रता संग्राम ने देशभक्तों और विशेष रूप से क्रांतिकारियों पर असाधारण प्रभाव डाला। यह घटना उनके लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी। सम्पूर्ण राष्ट्र द्वारा 1857 की 150 वीं जयन्ती वर्ष 2007 में उत्साहपूर्वक मनाना ही घटना के महत्व एवं प्रभाव को दर्शाती है। वास्तविक अर्थो में विद्रोह के स्वरूप के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि किसी क्रांति का स्वरूप केवल उस क्रांति के प्रारम्भ करने वालों के लक्ष्यों से निर्धारित नहीं हो सकता, बल्कि इससे निर्धारित होता है कि उस क्रांति ने अपनी क्या छाप छोड़ी।

1857 की घटना के स्वरूप को लेकर विद्वानों में अनेक मत हैं। ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसे सैनिक विद्रोह कहा है जबकि गैर ब्रिटिश विद्वानों ने इस घटना को जनआक्रोश की संज्ञा दी है। भारतीय इतिहासकारों में प्रमुख रूप से आर.सी. मजूमदार, सुरेन्द्र नाथ सेन एंव अशोक मेहता आदि ने 1857 की महान घटना को जन साधारण का राष्ट्रीय आन्दोलन कहा है, जिसमें हिन्दू-मुस्लिम सबने मिलकर ब्रिटिश शासन का विरोध किया।

यहाँ हमारे लिए यह उचित होगा कि हम राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में इस घटना की समीक्षा करें। मारवाड़ के ख्यात लेखक बांकीदास, बूँदी के साहित्यकार सूर्यमल्ल मीसण ने अपनी कृतियों अथवा पत्रों के माध्यम से गुलामी करने वाले राजपूत शासकों को धिक्कारा है। सूर्यमल्ल मीसण ने पीपल्या के ठाकुर फूलसिंह को लिखे एक पत्र में राजपूत शासकों को गुलामी करने की मनोवृत्ति की कटु आलोचना की थी। आउवा व अन्य कुछ ठाकुरों ने, जिनमें सलूम्बर भी शामिल है, अपने क्षेत्रों में चारणों द्वारा ऐसे गीत रचवाये, जिनमें उनकी छवि अंग्रेज विरोधी मालूम होती है। 

राजस्थान में क्रांति की शुरुआत 1857 से हुई, जब यहाँ के ब्रिटिश अधिकारी भागकर ब्यावर की ओर गये, तब रास्ते में ग्रामीण उन पर आक्रमण करने के लिए खड़े थे। कप्तान प्रिचार्ड ने स्वीकार किया है कि यदि बम्बई लॅान्सर के सैनिक उनके साथ न होते तो उनका बचे रहना आसान नहीं था। उसके अनुसार मार्ग में किसी भी भारतीय ने उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित नहीं की। उसने आगे लिखा है कि इस घटना के 24 घण्टे पहले ऐसी स्थिति नहीं थी।

अंग्रेजों के घरेलू नौकरों में उनके प्रति उपेक्षा का भाव देखा गया। क्रांतिकारी जिस मार्ग से भी गुजरे, लोगों ने उनका हार्दिक स्वागत किया। मध्य भारत का लोकप्रिय नेता तांत्या टोपे जहाँ भी गया, जनता ने उसका अभिनन्दन किया तथा उसे रसद आदि प्रदान की। जोधपुर के सरकारी रिकार्ड में यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जब ए.जी.जी जॅार्ज लॅारेन्स ने आउवा पर चढ़ाई की तब सर्वप्रथम गाँव वालों की तरफ से आक्रमण हुआ था। मारवाड़ में ऐसी परम्परा थी कि जब किसी बड़े अधिकारी की मृत्यु होती थी तब राजकीय शोक मनाते हुए किले में नौबत बजाना बन्द हो जाता था। किंतु कप्तान मॅाक मेसन की मृत्यु के बाद ऐसा नहीं किया गया, जबकि किलेदार अनाड़सिंह की मृत्यु होने पर किले में नौबत बजाना बन्द रख गया। आउवा ठाकुर कुशालसिंह द्वारा ब्रिटिश सेनाओं की टक्कर लेने से घटना को उस समय के साहित्य में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है।

राजस्थान के संदर्भ में 1857 की क्रांति का अध्ययन और विश्लेषण करने से यह विदित होता है कि राजस्थान में यह महान् घटना किसी संयोग का परिणाम नहीं थी, अपितु यह तो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सर्वव्यापी रोष का परिणाम थी। यही कारण है कि आउवा की जनता सैनिकों के जाने के बाद भी लड़ती रही। नसीराबाद, नीमच और एरिनपुरा की घटनाएँ निःसन्देह भारतव्यापी क्रांति का अंग थी, लेकिन कोटा और आउवा की घटनाएँ स्थानीय परिस्थितियों का परिणाम थी और उनमें ब्रिटिश विरोधी भावना निर्विवाद रूप से विद्यमान थी। टोंक और कोटा की जनता ने तो विद्रोहियों से मिलकर संघर्ष में भाग लिया था।

जन आक्रोश के कारण ही भरतपुर के शासक ने मोरीसन को राज्य छोड़ने का परामर्श दिया था। कोटा के महाराव ने भी मेजर बर्टन को कोटा नहीं आने के लिए कहा था। जन आक्रोश के कारण ही मजबूरीवश टोंक के नवाब ने अंग्रेजों को अपने राज्य की सीमा से नहीं गुजरने के लिए कहा था।

अंत में, यह कहा जा सकता है कि राजस्थान की जनता अंग्रेजों को फिरंगी कहती थी और अपने धर्म को बनाये रखने के लिए उनसे मुक्ति चाहती थी। कुछ स्थानों पर स्थानीय जनता ने भी इस संघर्ष में भाग लिया था, तो अन्य स्थानों पर जनता का नैतिक समर्थन प्राप्त था। यह कहने में हमें संकोच नहीं करना चाहिए कि 1857 का यह संघर्ष विदेशी शासन से मुक्त होने का प्रथम प्रयास था। इस क्रांति को यदि राजस्थान का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा जाये तो सम्भवतः अनुचित नहीं होगा।

Comments

  1. लेख अच्छा है लेकिन क्रान्तिकारियों को विद्रोही कहने असभ्यता क्यों।आप अँग्रेज़ हैं क्या।इस वामपंथ से बचें।

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हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋत...

THE SCHEDULED AREAS Villages of Udaipur district - अनुसूचित क्षेत्र में उदयपुर जिले के गाँव

अनुसूचित क्षेत्र में उदयपुर जिले के गाँव- अनुसूचित क्षेत्र में सम्मिलित उदयपुर जिले की 8 पूर्ण तहसीलें एवं तहसील गिर्वा के 252, तहसील वल्लभनगर के 22 व तहसील मावली के 4 गांव सम्मिलित किए गए हैं। ये निम्नानुसार है- 1. उदयपुर जिले की 8 पूर्ण तहसीलें (कोटड़ा, झाडोल, सराड़ा, लसाड़िया, सलूम्बर, खेरवाड़ा, ऋषभदेव, गोगुन्दा) - 2. गिर्वा तहसील (आंशिक) के 252 गाँव - S. No. GP Name Village Name Village Code Total Population Total Population ST % of S.T. Pop to Total Pop 1 AMBERI AMBERI 106411 3394 1839 54.18 2 AMBERI BHEELON KA BEDLA 106413 589 573 97.28 3 AMBERI OTON KA GURHA 106426 269 36 13.38 4 AMBERI PRATAPPURA 106427 922 565 61.28 5 CHEERWA CHEERWA 106408 1271 0 0.00 6 CHEERWA KARELON KA GURHA 106410 568 402 70.77 7 CHEERWA MOHANPURA 106407 335 313 93.43 8 CHEERWA SARE 106406 2352 1513 64.33 9 CHEERWA SHIVPURI 106409 640 596 93.13 10 DHAR BADANGA 106519 1243 1243 100.00 11 DHAR BANADIYA 106...

Scheduled Areas of State of Rajasthan - राजस्थान के अनुसूचित क्षेत्र का विवरण

राजस्थान के अनुसूचित क्षेत्र का विवरण (जनगणना 2011 के अनुसार)-   अधिसूचना 19 मई 2018 के अनुसार राजस्थान के दक्षिण पूर्ण में स्थित 8 जिलों की 31 तहसीलों को मिलाकर अनुसूचित क्षेत्र निर्मित किया गया है, जिसमें जनजातियों का सघन आवास है। 2011 की जनगणना अनुसार इस अनुसूचित क्षेत्र की जनसंख्या 64.63 लाख है, जिसमें जनजाति जनसंख्या 45.51 लाख है। जो इस क्षेत्र की जनसंख्या का 70.42 प्रतिशत हैं। इस क्षेत्र में आवासित जनजातियों में भील, मीणा, गरासिया व डामोर प्रमुख है। सहरिया आदिम जाति क्षेत्र- राज्य की एक मात्र आदिम जाति सहरिया है जो बांरा जिले की किशनगंज एवं शाहबाद तहसीलों में निवास करती है। उक्त दोनों ही तहसीलों के क्षेत्रों को सहरिया क्षेत्र में सम्मिलित किया जाकर सहरिया वर्ग के विकास के लिये सहरिया विकास समिति का गठन किया गया है। क्षेत्र की कुल जनसंख्या 2.73 लाख है जिसमें से सहरिया क्षेत्र की अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 1.02 लाख है जो क्षेत्र की कुल जनसंख्या का 37.44 प्रतिशत है।  अनुसूचित क्षेत्र में राजकीय सेवाओं में आरक्षण सम्बन्धित प्रावधान-  कार्मिक (क-...