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जानिए राजस्थान के राजकीय पशु ऊँट के बारे में


ऊँट रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है। मरूधरा की कठिन जीवनयापन शैली में यह मानव का जीवन संगी है। अपनी अनूठी जैव-भौतिकीय विशेषताओं के कारण यह शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों की विषमताओं में जीवनयापन के लिए अनुकूलन का प्रतीक बन गया है। रेत के धोरो में ऊँट के बिना जीवन बिताना अति दुष्कर है। ‘रेगिस्ता‍न का जहाज’ के नाम से प्रसिद्ध इस पशु ने परिवहन एवं भार वाहन के क्षेत्र में अपरिहार्यता की हद तक पहचान बनाई है परंतु इसके अतिरिक्त भी ऊँट की बहुत सी उपयोगिताएं हैं जो निरन्तर सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों से प्रभावित है। ऊँटों ने प्राचीन काल से वर्तमान समय तक नागरिक कानून एवं व्यवस्था, रक्षा व युद्ध के क्षेत्र में महत्ती भूमिका निभाई है। 
तत्कालीन बीकानेर के विश्व प्रसिद्ध गंगा रिसाले को शाही सेना में स्थान मिला था तथा इन ऊँटों ने प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्धों में भी भाग लिया था। राजस्थान के पश्चिमी भाग में इन्दिरा गांधी नहर के निर्माण के समय ऊँटों ने इंजीनियरों की बहुत सहायता की थी। आजकल उष्ट्र कोर भारतीय अर्द्ध सैनिक बल के अन्तर्गत सीमा सुरक्षा बल का एक महत्वपूर्ण भाग है।

  • राजस्थान सरकार ने 30 जून 2014 को ऊँट को राजस्थान के राज्य पशु का दर्जा दिया था, जिसकी घोषणा बीकानेर जिले में मंत्री मंडल की बैठक में की गई । इससे ऊंटों के संरक्षण करने, वध और इनकी तस्करी पर रोक लगाने के लिए "राजस्थान ऊष्ट्रवंशीय पशु (वध एवं प्रतिषेध और अस्थायी प्रव्रजन एवं निर्यात का विनियमन) अधिनियम 2014" बनाने को मंजूरी दी गई। इस फैसले से ऊंटों के पलायन एवं तस्करी पर रोक लगेगी।  
  • क्यों पड़ी कानून की जरूरत-
    -क्योंकि 24 साल में 3.34 लाख घटे ऊंट
    -3.41 लाख ऊंट थे 1951 में प्रदेश में 
    -7.56 लाख हुई यह संख्या 1983 में 
    -4.22 लाख ही रह गए 2007 में
  • -पशुगणना 2007 की तुलना में पशुगणना 2012 में राज्य में ऊंटों आबादी में 22.79% की कमी आई है।  ऊंटों की आबादी 2003 में 4,90,000 (0.49 million) थी जो 2012 में कम होकर 3,25,713 (0.32 million) रह गई है। 
  • राजस्थान में ऊँट पालने के लिए रेबारी जाति प्रसिद्ध है। 
  • राजस्थान के लोकगीतों में भी ऊँट के महत्त्व को देखा जा सकता है।  ऊँट के श्रृंगार के गाया जाने वाला गोरबंद एक प्रसिद्ध श्रृंगार गीत  है।
  • ऊँट के नाक में डाले जाने वाले लकड़ी के आभूषण को गिरबाण कहते हैं
  • भारत में सर्वप्रथम ऊंट मोहम्मद बिन कासिम लेकर आया था इसीलिए भारत में ऊंट लाने का श्रेय मोहम्मद बिन कासिम को दिया जाता है।



          राजस्थान में भारत के सर्वाधिक 79 प्रतिशत ऊँट पाए जाते हैं। 2012 की पशुगणना के अनुसार राज्य में ऊंटों की कुल संख्या 3,25,713 (लगभग 0.32 million) है। पशुगणना 2007 की तुलना में पशुगणना 2012 में राज्य में ऊंटों आबादी में 22.79% की कमी आई है।  ऊंटों की आबादी 2003 में 4,90,000 (0.49 million) थी जो 2012 में कम होकर 3,25,713 (0.32 million) रह गई है। 
ऊँट प्रमुखत: जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर, चूरु, सीकर व झुंझनु आदि जिले में मिलते है। पशुगणना 2012 के अनुसार राज्य में सर्वाधिक ऊंट जैसलमेर (49,917) में पाए जाते हैं जबकि सबसे कम ऊंट प्रतापगढ़ (109) में पाए जाते हैं। जैसलमेर के समीप नाचना व फलौदी के निकट गोमठ का ऊँट श्रेष्ठ माना जाता है।  भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद द्वारा बीकानेर के पास जोहड़ बीड़ में राष्ट्रीय ऊँट अनुसंधान केंद्र स्थापित किया है।

 

पशुगणना 2012 के अनुसार जिलावार ऊंटों की आबादी- 

प्रथम      -   जैसलमेर    -  कुल ऊंटों की संख्या    49,917 
द्वितीय  -   बीकानेर     -  कुल ऊंटों की संख्या    46,209 
तृतीय     -   बाड़मेर       -  कुल ऊंटों की संख्या    43,172
अंतिम    -   प्रतापगढ़    कुल ऊंटों की संख्या    109

 

राजस्थान में ऊंटों की विभिन्न नस्लें-

राजस्थान में ऊँटों की मुख्यतया दो नस्लें पाई जाती है :-


 

बीकानेरी नस्ल के ऊंट - 

यह बीकानेर, गंगानगर, झुंझुनूं, नागौर, सीकर, चुरू, हनुमानगढ़ में पाई जाती है। यह नस्ल मध्यप्रदेश के आस-पास के हिस्सों में भी पाई जाती है। बीकानेरी नस्ल का ऊँट एक उत्तम रेगिस्तानी पशु है। यह भारत की प्रमुख ऊंट नस्लों में से एक है। इन ऊँटों में भार खींचने की क्षमता अधिक होती है, इस कारण इसका अधिकतर उपयोग बोझा ढोने में, किया जाता है।  इसके अलावा यह दूध के लिए, बाल (फाइबर) के लिए तथा खाद उत्पादन में भी उपयोगी है। इस नस्ल के ऊँट 48-80 किमी तक की दूरी एक दिन में तय कर लेते हैं। इस नस्ल के ऊँट को सिंधी, बलूची, अफ़गान और स्थानीय ऊंटों की नस्लों के चयनात्मक अंतर प्रजनन द्वारा विकसित किया गया है।
बीकानेरी नस्ल का ऊँट शरीर में भारी होता है। ऊँट की ऊँचाई जमीन से थुवे तक 10 से 12 फीट तक होती है। शरीर गठीला व मजबूत होता है। इसकी गर्दन लम्बी, मोटी एवं मजबूत होती है। सिर बड़ा एवं नाक गोलाई लिए हुए होती है। सिर के अग्रभाग में आँखों के उपर की तरफ गड्ढा-सा होता है। जहाँ से नाक की हड्डी ऊपर उठी हुई दिखाई देती है, नाक लम्बी व ऊपर से दो हिस्सों में बंटी होती है। कान छोटे व ऊपर से गोलाई लिए हुए होते हैं। आगे के पैर पीछे के पैरों की तुलना में अधिक मजबूत होते हैं। ऊँट की आँखों, कान व गले पर लम्बे काले बाल पाए जाते हैं। इस तरह के ऊँटों को ‘झीपडा़ ऊँट‘ भी कहा जाता है।

 

जैसलमेरी नस्ल के ऊंट- 

यह जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर में पाई जाती है। इसकी नाचना नस्ल सबसे अच्छी मानी जाती है। इसकी भौगोलिक स्थिति के कारण इसे जैसलमेरी के नाम से जाना जाता है। जैसलमेरी नस्ल को पाकिस्तान के आसपास के सिंध इलाके के थारपारकर नस्ल से विकसित किया गया हैं। इस नस्ल के ऊँट सवारी करने के लिए तथा रेतीले भाग में अपनी दौड़ क्षमता के लिए जाना जाता है। युवा मादा ऊंट की दौड़ की औसत गति लगभग 30 किमी / घंटा होती है। इसकी ऊंट सफारी  ('खुशी की सवारी' - Joy riding) और अन्य मनोरंजन के लिए बहुत मांग रहती है। रेसिंग, ऊंट नृत्य, ऊंट पोलो, ऊंट डंडिया नृत्य आदि द्वारा पर्यटकों के मनोरंजन का यह सबसे लोकप्रिय माध्यम हैं। पाकिस्तान के साथ लंबी रेगिस्तानी सीमा पर सतर्कता रखने के लिए बीएसएफ, आरएसी जैसे सुरक्षा बलों में भी जैसलमेरी ऊंट की भी बड़ी मांग है। इसके अलावा श्री गंगानगर जिले से बाड़मेर जिले तक आपातकाल के दौरान आपूर्ति लाइन को बनाए रखने के लिए भी जैसलमेरी ऊंट उपयोगी होता है। निकट भविष्य में यह नस्ल विदेशी मुद्रा का एक बड़ा स्रोत होगा, क्योंकि रेत और विभिन्न प्रकार के खेलों के लिए पेट्रोडालर देशों में इसकी मांग में वृद्धि होगी।
इस नस्ल के ऊँट का सिर छोटा, गर्दन पतली एवं नाक हल्की-सी ऊपर उठी हुई होती है। आँखें बड़ी एवं टाँगें लम्बी होती है। इन ऊँटों का रंग भूरा या हल्का कालापन लिए हुए होता है। जैसलमेरी नस्ल के ऊँट शरीर में छोटे व पतले होते हैं तथा इनकी ऊँचाई 7 से 9 फीट होती है,कान छोटे व पास-पास होते हैं जो खडे़ रहते हैं शरीर पर बाल छोटे होते हैं, जिन्हें कतरने की जरूरत नहीं पडत़ी हैपाँव के तलवे भी छोटे व हल्के होते हैं। पूँछ छोटी व पतली होती है।

 

ऊँट की अन्य नस्लें-

गोमठ ऊँट (फलौदी जोधपुर), मेवाती ऊँट या अलवरी ऊँट (राजस्थान के अलवर, भरतपुर और हरियाणा की नस्ल), सिंधी ऊँट,  मेवाड़ी ऊँट (उदयपुर, चित्तोड़गढ़, राजसमन्द, डूंगरपुर, कोटा आदि जिलों में), मारवाड़ी ऊँट (बाड़मेर, जोधपुर, जालोर आदि जिलों में),  जालोरी ऊँट, कच्छी ऊँट (गुजरात की नस्ल), मालवी (मध्य प्रदेश की नस्ल) ऊँट, खराई ऊँट (गुजरात की नस्ल)





कच्छी नस्ल के ऊँट-

कच्छी नस्ल गुजरात राज्य के कच्छ के रण में बसती है। प्रमुख प्रजनन क्षेत्र गुजरात के कच्छ एवं बसनकांठ जिले हैं जहाँ की धरती दलदली एवं नमकीन झाड़ियों से परिपूर्ण होती है। इस नस्ल के ऊँट सामान्यतया मटमैले रंग के होते हैं तथा भौंहे एवं कानों पर बाल नहीं होते हैं। शरीर के बाल रूक्ष होते हैं। मध्यम आकार का सिर तथा अग्र सिर पर 'गङ्ढा' नहीं होता है। शरीर मध्यम आकार का होता है। इस नस्ल के ऊँट भारी एवं प्रदर्शन में ढीले होते हैं। ये बलवान एवं कुछ छोटे होते हैं। इनके पुट्ठे मजबूत, टांगें भारी, पावों के तलवे कठोर एवं मोटे होते हैं। ये कच्छ के नम वातावरण एवं दलदली भूमि को अच्छी तरह से अनुकूलित किए हुए हैं। कुछ जानवरों में दांत दूरी पर स्थित होने के कारण नीचे के होंठ लटके हुए होते हैं। अयन अच्छी तरह से विकसित एवं ज्यादातर आकार में गोल होते हैं।

मेवाड़ी ऊँट -

इस नस्ल ने अपना नाम मेवाड़ क्षेत्र से प्राप्त किया है जहां ये बहुतायत पाए जाते हैं। मेवाड़ी नस्ल अपनी दुग्ध उत्पादन क्षमता के लिए प्रसिद्ध है। इस नस्ल का प्रमुख प्रजनन क्षेत्र राजस्‍थान के उदयपुर, चित्तौडगढ़, राजसमन्द जिले तथा मध्यप्रदेश के नीमच एवं मन्‍दसौर जिले हैं। इस नस्ल के ऊँट भीलवाड़ा, बांसवाड़ा, डूंगरपूर जिलों तथा राजस्थान के हाड़ौती में भी देखे जा सकते हैं । इस प्रजनन क्षेत्र की समुद्र स्तर से औसत ऊँचाई 575 मीटर है। यह क्षेत्र मेवाड़ के अरावली पहाड़ों से अटा हुआ है। मेवाड़ी ऊँट बीकानेरी ऊँटों से स्‍थूल एवं कुछ छोटे होते है। इनके पुट्ठे मजबूत, भारी टांगे, पांवों के तलवे कठोर एवं मोटे होते हैं। पहाड़ों पर यात्रा एवं भार ले जाने के लिए अनुकूलित है। शरीर के बाल रूक्ष होते हैं जो इन्हें जंगली मधुमक्खियों एवं कीड़ों के काटने से बचाते हैं। ये ऊँट हल्के भूरे रंग या सफेद होते हैं। कुछ ऊँट बिल्कुल सफेद रंग के होते हैं। सामान्यतया इस प्रकार की रंग-विविधता ऊँटों में कम देखाई देती है। इनका सिर भारी, गर्दन मोटी होती है। बीकानेरी ऊँट से भिन्न, मेवाड़ी ऊँट के अग्र सिर पर कोई गङ्ढा नहीं पाया जाता है परंतु थुथन ढीली होती है। कान मोटे एवं आकार में लघु तथा पृथक रूप से होते हैं। पूछ लम्बी एवं मोटी होती है। मादाओं में दुग्ध शिरा पूर्ण विकसित एवं अयन भारी होते हैं।

ऊँट का आवास -

एक ऊँट के लिए 2.5 मीटर से 5.5 मीटर खुला स्थान आवास हेतु पर्याप्त होता है। 

 

ऊँट का आहार -

ऊँट प्रतिदिन अधिक से अधिक अपने शारीरिक भार का 1.5 से 2 प्रतिशत चारा ग्रहण कर सकता है।

ऊँट के आहार का तीन वर्गों में बांटा जा सकता है -

 1. हरी घास, खरपतवार झाड़ियों पेड़ों व शाक के पत्ते :- जैसे गोखरू, तुम्बा (इन्द्रायन),खीम्प, बुई, फोग,केर, खार, पाला, बेर, खेजड़ी, बबूल, खेरी, कुम्हटा, नीम आदि।
 

2. शुष्क चारा :- इसमें चारे का सुखाकर भण्डारण किया जाता है। इसमें ज्वार, बाजरा, मक्का, तारामीरा आदि की तुड़ी व चना, मोंठ, मूंग व ग्वार का भूसा मुख्य है।
 

3. दाने के रूप में आहार :- बाजरे व जौ का आटा, गुड़, चना, मोंठ, मूंग व ग्वार चूरी, ग्वार, मक्का, गेंहूँ, तिल की खल व सरसों की खल आदि को दाने के रूप में खिलाया जाता है।

 

आहार में ध्यान रखने योग्य अन्य बातें-

  • ऊँट के आहार में 30-50 ग्राम नमक प्रतिदिन देना चाहिए।
  • गर्भकाल के अंतिम चरणों में दूध देने वाले पशुओं में व अधिक कार्य करने वाले ऊँटों को लगभग 25 प्रतिशत पोषक तत्व, आहार में अतिरिक्त रूप से उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
  • खाने के तुरंत बाद ऊँट का सवारी या बोझ ढोने के काम में नहीं लेना चाहिए अन्यथा उसमें अपच, पेट दर्द व आफरे जैसी व्याधियाँ हो सकती है।

ऊँटों में पाए जाने वाले प्रमुख रोग -

 

अपच/बन्द पड़ना -

 अधिक समय तक पौष्टिक आहार ना मिलने पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध नहीं होने, आहार में अचानक परिवर्तन एवं आहार देने के तुरंत बाद ऊँट को काम में लिए जाने के कारण ऊँट में अपच होकर बन्द पड़ जाता है। बंद पडऩे पर ऊँट सुस्त हो जाता है। वह चारा-पानी में रूचि कम लेने लगता है और जुगाली करना बन्द कर देता है। कभी-कभी पेट दर्द एवं आफरे की शिकायत भी देखने को मिलती है।

 

खुजली/पांव/मेंज

समूह में रहने वाले ऊँटों में मुख्यतया सर्दी में खुजली होती है। ऐसे ऊँट, जिनमें साफ-सफाई, समय पर बालों की कटाई एवं मालिश नियमित रूप से नहीं की जाती है, उनमें खुजली होने की सम्भावनायें बढ़ जाती है। यह बीमारी बाह्य परजीवी के कारण होती है। मादा परजीवी के ऊँट की चमड़ी में प्रवेश करने से जलन होती है एवं खुजली चलती है। इसके उपचार हेतु एक हिस्सा गंधक और चार हिस्से तारामीरा या सरसों के तेल को मिलाकर पेस्ट बनाएं तथा बालों की कटाई के पश्चात् प्रभावित स्थान पर लगायें।  से सप्ताह में दो या तीन बार दोहरायें एवं पशु चिकित्सक से सम्पर्क कर उपचार कराएं। 

 

तिबरसा (सर्रा)-

ऊँटों की यह प्रमुख बीमारी टैबेनस मक्खी (घोडा मक्खी) के काटने से, ट्रिपनेसोमा इवानसाई नामक रक्त परजीवी के कारण एक ऊँट से दूसरे ऊँट में फैलती है। प्रभावित ऊँट की आँखें मंद पड़ जाती है और सुस्त हो जाता है। गर्भितज ऊँटनी में गर्भपात की सम्भावनाऐं बढ़ जाती है। रोग के बढने पर पेट के नीचे, पिछली टांगों पर एवं आँख के गड्ढे में पानी भर जाता है। इस रोग में क्रमिक बुखार (निश्चित अन्तराल पर) आता है, खून की कमी से पशु कमजोर हो जाता है एवं मृत्यु तक हो जाती है। तिबरसा रोग के लक्षण दिखने पर खून की जांच करावें एव ऊँट को आराम व पौष्टिक आहार देवें तथा पशु चिकित्सक की सलाह से उपचार कराएं।

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