Skip to main content

हिंदुस्तान के आदिवासियों का महाकुंभ वेणेश्वर मेला





राष्ट्रीय जनजाति मेले की संज्ञा प्राप्त कर चुके आदिवासियों या जनजातियों के महाकुम्भ के नाम से विख्यात डूंगरपुर जिले के बेणेश्वर धाम में 14 से 18 फरवरी तक चले विशाल मेले के मुख्य दिन 18 फरवरी माघ पूर्णिमा के अवसर पर आस्था का ज्वार उमड़ा। "वागड़ प्रयाग" के नाम से विख्यात बेणेश्वर धाम पर माही, सोम व जाखम नदियों के पवित्र संगम पर माघ पूर्णिमा को गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान के लाखों श्रद्धालुओं ने मेले में भाग लिया और पारंपरिक अनुष्ठानों को संपादित किया। ‘वनवासियों का महाकुम्भ’ कहा जाने वाले इस विशाल मेले में इस पवित्र अवसर पर हजारों आदिवासियों ने अपने मृत परिजनों की मुक्ति की कामना से आबूदर्रा स्थित संगम तीर्थ में पारंपरिक अनुष्ठानों के साथ परिजनों की स्मृति में करुणालाप करते हुए लाल या श्वेत वस्त्र ढकी अस्थियों भरी कुल्हड़ियों को अंतिम प्रणाम किया, गुरु से पूजा करवाई तथा परिजनों सहित कमर तक पानी में खड़े रह कर दक्षिण दिशा में मुँह करके अस्थियों का विसर्जन किया और दिवंगत परिजन के मोक्ष के निमित्त विधि-विधान के साथ त्रिपिण्डी श्राद्ध आदि उत्तर क्रियाएँ भी संपन्न की। आर्थिक विपन्नता के कारण यहां के बहुसंख्य वनवासी गया आदि स्थलों पर जाकर अपने मृत परिजनों की उत्तरक्रियाएं करने में समर्थ नहीं हैं, ऐसे में बेणेश्वर धाम का संगम तीर्थ ही उनके लिए हरिद्वार, काशी, गया आदि तीर्थों की तरह है। वर्ष में एक बार बेणेश्वर मेले में आकर वे मोक्ष रस्मों को पूरा करते हैं व अपने गुरुत्तर पारिवारिक दायित्व निभाते हैं। बीते वर्ष में जब भी परिवार में किसी की मृत्यु हुई, तब उसकी चिताभस्म से अवशेष रही अस्थियों, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘फूल’ कहा जाता है, को मिट्टी की हाँडी या कुल्हड़ में सहेज कर रख दिया जाता है। जिन समुदायों में शव को गाड़ने का रिवाज है, उनमें शव को गाड़ने से पूर्व नाखून एवं कुछ केश ले लिए जाते हैं। इन्हें कुल्हड़ में भरकर घर के बाहर रख देते हैं। इनकी मान्यता है कि जब तक बेणेश्वर जाकर अस्थि विसर्जन नहीं किया जाता,तब तक मृतात्मा का मोक्ष नहीं होता है। इस मेले में मध्याह्न बाद माव पीठ के महंत अच्युतानंद का शाही जुलूस भी निकला।

साबला स्थित हरि मंदिर में पूजा के बाद जुलूस की शुरुआत हुई। भगवान निष्कलंक की सवारी प्रमुख आकर्षण रही, जिसके दर्शन व स्पर्श की ललक लोगों में थी। साबला से बेणेश्वर तक शाही जुलूस का मार्ग 10 किमी का था।


वागड़ के नास्त्रेदमस थे मावजी महाराज

भविष्यवाणियों का ध्यान आते ही नास्त्रेदमस का ही एक नाम याद आता है लेकिन उससे भी पहले वागड़ प्रयाग बेणेश्वर धाम पर हुए "संत मावजी महाराज" ने भी हजारों भविष्यवाणियां की हैं, जो आज भी सटीक हैं। मावजी को भगवान श्रीकृष्ण के लीलावतार के रूप में लगभग तीन सदियों से पूजा जा रहा है। बेणेश्वर धाम के आद्य पीठाधीश्वर संत मावजी का जन्म राजस्थान के जनजाति बाहुल्य डूंगरपुर जिले के साबला गांव में विक्रम संवत 1771 को माघ शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) को हुआ था। इनके पिता दालम ऋषि व माता केसरबाई थी। वे कठोर तपस्या उपरांत संवत् 1784 में माघ शुक्ल ग्यारस को लीलावतार के रूप में संसार के सामने आए। मावजी ने योग, भक्ति व ज्ञान की शिक्षा-दीक्षा गुरु "सहजानन्द" से ली थी। उनके अनन्य मित्र एवं भक्त के रूप में जीवनदास सदैव उनके साथ रहे। उन्होंने आज से लगभग पौने तीन सौ साल पहले दुनिया में होने वाले भावी परिवर्तनों की सटीक एवं स्पष्ट भविष्यवाणियां कर दी थीं। कालान्तर में समय-समय पर ये भविष्यवाणियां अक्षरश: सच साबित हुई है। धर्म प्रचार के साथ समाज सुधार में समर्पित रहे। संत मावजी महाराज ने नदियों से घिरे बेणेश्वर टापू को अपनी साधना के लिए सर्वाधिक उपयुक्त पाया और साबला से विक्रम संवत् 1784 में माघ शुक्ल एकादशी, सोमवार को बेणेश्वर में विहार के लिए आए और वहीं रहकर तप करते हुए कई चोपड़ों की रचना की जो आध्यात्मिक जगत की दुर्लभ विरासत हैं। संत मावजी की स्मृति में ही आज भी हर वर्ष माघ पूर्णिमा को मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमा से लगे राजस्थान के माही, सोम एवं जाखम नदियों के पवित्र जल संगम पर बने विशाल टापू 'बेणेश्वर महाधाम' पर यह विराट मेला भरता है, जिसमें देशी-विदेशी सैलानियों के अलावा राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के इस समीपवर्ती अंचल के कई लाख लोग हिस्सा लेते हैं। लगभग दस दिन तक चलने वाला यह मेला भारतवर्ष के आदिवासी अंचलों का सबसे बड़ा आध्यात्मिक मेला है। इसी वजह से इसे हिन्दुस्तान के आदिवासियों का महाकुंभ कहा जाता है। इस बार यह मेला 14 से 22 फरवरी तक चला किंतु मुख्य मेला 18 फरवरी तक था। इस मेले में मेलार्थियों ने मावजी महाराज के चोपड़े (विशाल ग्रंथ) के दर्शन कर सुकून पाया। उनकी कृतियों व छायाचित्रों की प्रदर्शनी देखने भारी जमघट लगा। वर्ष में अनेक अवसरों पर इन भविष्यवाणियों, जिन्हें 'आगलवाणी' कहा जाता है, का वाचन होता है। मावजी महाराज ने इनमें साम्राज्यवाद के अंत, प्रजातंत्र की स्थापना, अछूतोद्धार, विज्ञान के विकास, अत्याचार, पाखंड, इत्यादि कलियुग के प्रभावों में वृद्धि, सामाजिक परिवर्तनों आदि पर स्पष्ट भविष्यवाणियां की हैं। इन आगलवाणियों में मावजी ने मानव धर्म की स्थापना, साबरमती में संग्राम होने, बत्तीस हाथ का पुरुष, उत्तर दिशा से अवतार के आने, धरती पर अत्याचार बढऩे, व्यभिचारों में अभिवृद्धि, अकाल, भ्रष्टाचार, स्वेच्छाचारिता, अश्लीलता में बढ़ोतरी आदि का जिक्र किया गया है। लगभग पौने तीन सौ वर्ष पूर्व जब पानी की कोई कमी नहीं थी तब उन्होंने कहा था 'परिये पाणी वेसाये महाराज' अर्थात तौल के अनुसार (बोतलों में) पानी बिकेगा। 'डोरिया दीवा बरे महाराज' अर्थात तारों से बल्ब जलेंगे। यंत्रों के इस्तेमाल को उन्होंने दिव्य दृष्टि से देखकर ही कहा था- 'बड़द ने सर से भार उतरसे।' अर्थात् बैल के सर से भार उतर जाएगा।

Comments

Popular posts from this blog

Baba Mohan Ram Mandir and Kali Kholi Dham Holi Mela

Baba Mohan Ram Mandir, Bhiwadi - बाबा मोहनराम मंदिर, भिवाड़ी साढ़े तीन सौ साल से आस्था का केंद्र हैं बाबा मोहनराम बाबा मोहनराम की तपोभूमि जिला अलवर में भिवाड़ी से 2 किलोमीटर दूर मिलकपुर गुर्जर गांव में है। बाबा मोहनराम का मंदिर गांव मिलकपुर के ''काली खोली''  में स्थित है। काली खोली वह जगह है जहां बाबा मोहन राम रहते हैं। मंदिर साल भर के दौरान, यात्रा के दौरान खुला रहता है। य ह पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है और 4-5 किमी की दूरी से देखा जा सकता है। खोली में बाबा मोहन राम के दर्शन के लिए आने वाली यात्रियों को आशीर्वाद देने के लिए हमेशा “अखण्ड ज्योति” जलती रहती है । मुख्य मेला साल में दो बार होली और रक्षाबंधन की दूज को भरता है। धूलंड़ी दोज के दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु बाबा मोहन राम जी की ज्योत के दर्शन करने पहुंचते हैं। मेले में कई लोग मिलकपुर मंदिर से दंडौती लगाते हुए काली खोल मंदिर जाते हैं। श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित एक पेड़ पर कलावा बांधकर मनौती मांगते हैं। इसके अलावा हर माह की दूज पर भी यह मेला भरता है, जिसमें बाबा की ज्योत के दर्शन करन

राजस्थान का प्रसिद्ध हुरडा सम्मेलन - 17 जुलाई 1734

हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरूद्ध क

Civilization of Kalibanga- कालीबंगा की सभ्यता-
History of Rajasthan

कालीबंगा टीला कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में घग्घर नदी ( प्राचीन सरस्वती नदी ) के बाएं शुष्क तट पर स्थित है। कालीबंगा की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता का काल 3000 ई . पू . माना जाता है , किन्तु कालांतर में प्राकृतिक विषमताओं एवं विक्षोभों के कारण ये सभ्यता नष्ट हो गई । 1953 ई . में कालीबंगा की खोज का पुरातत्वविद् श्री ए . घोष ( अमलानंद घोष ) को जाता है । इस स्थान का उत्खनन कार्य सन् 19 61 से 1969 के मध्य ' श्री बी . बी . लाल ' , ' श्री बी . के . थापर ' , ' श्री डी . खरे ', के . एम . श्रीवास्तव एवं ' श्री एस . पी . श्रीवास्तव ' के निर्देशन में सम्पादित हुआ था । कालीबंगा की खुदाई में प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस उत्खनन से कालीबंगा ' आमरी , हड़प्पा व कोट दिजी ' ( सभी पाकिस्तान में ) के पश्चात हड़प्पा काल की सभ्यता का चतुर्थ स्थल बन गया। 1983 में काली