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नाथद्वारा का जन्माष्टमी का अद्भुत उत्सव :

नाथद्वारा का जन्माष्टमी का पर्व :-



भगवान श्री कृष्ण का जन्म दिवस ‘जन्माष्टमी’ संपूर्ण भारतवर्ष में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। राजस्थान के राजसमन्द जिले के पुष्टिमार्गीय वैष्णव संप्रदाय के प्रधान पीठ नाथद्वारा में यह त्यौहार अत्यंत विशिष्ट तरीके से मनाए जाने के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध हैं। इस उत्सव का आनंद लेने के देशभर से हजारों भक्तगण यहाँ आते है तथा इस उत्सव को हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। यहाँ श्रीनाथजी के मंदिर में सुबह मंगला से लेकर रात्रि 12 बजे तक दिनभर के सभी आठों दर्शन, प्रभु को 21 तोपों की सलामी, विशाल शोभायात्रा व झांकियां तथा जन्माष्टमी के दूसरे दिवस आयोजित होने वाला नन्द-महोत्सव बहुत ही अद्भुत होते हैं। इस अवसर पर पूरे नगर में मेले-सा माहौल रहता है और भक्तों का भारी हुजूम इस पर्व में शामिल होकर आनंदित होने के लिए उमड़ता है। शाम लगभग 6 बजे एक विशाल और भव्य शोभायात्रा का आयोजन भी किया जाता है जो नगर के रिसाला चौक से शुरू होकर चौपाटी बाजार, देहली बाजार, गोविन्द चौक, बड़ा बाजार मार्ग होते हुए प्रीतमपोली, नयाबाज़ार, चौपाटी होते हुए पुनः रिसाला चौक आती है। इस शोभायात्रा में श्रीनाथबेण्ड, श्रीनाथजी की फ़ौज-'गोविन्द पलटन' की परेड, प्रभु की विभिन्न झाँकियां, सुखपाल, विशेष दर्शनीय होती है। इस शोभा यात्रा में वैष्णवजन की भजन मंडली नृत्य करते हुए भजन गाकर नगर को भक्तिमय बना देती है। यहाँ जन्माष्टमी उत्सव की तैयारी कई दिनों पहले से ही शुरू कर दी जाती है। यूं तो जन्माष्टमी का त्यौहार देशभर में भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है किन्तु नाथद्वारा के श्रीनाथजी के मंदिर में कृष्ण जन्मोत्सव के मनाने की शुरूआत श्रावण कृष्ण अष्टमी से ही हो जाती है। श्रावण कृष्ण अष्टमी को भी जन्माष्टमी के अनुरूप श्रीनाथजी को श्रृंगार धारण कराया जाता है।


जन्माष्टमी के प्रातःकाल के दर्शन-


जन्माष्टमी के दिन श्रीनाथजी के मंदिर में प्रातः 4 बजे ही शंखनाद हो जाते हैं और शंखनाद के आधे घंटे पश्चात् मंगला के दर्शन खुलते हैं। मंगला में प्रभु श्रीनाथजी को धोती-उपरना धारण कराया जाता है और ललाट पर तिलक व अक्षत लगाए जाते हैं। इसके बाद पंचामृत से स्नान कराया जाता है। अन्य अनेक जन्मोत्सव, पर्वोत्सव पर श्री मदन मोहन लाल या श्री बालकृष्णलालजी को पंचामृत से स्नान कराया जाता है, किन्तु जन्माष्टमी का विशिष्ट उत्सव होने के कारण प्रभु श्रीनाथजी को ही पंचामृत से स्नान कराया जाता है, तब यहाँ के मंदिर में गोद में बिराजित प्रभु श्री मदनमोहन लाल जी तथा श्री बालकृष्ण लाल जी भी साथ में पंचामृत से सराबोर हो जाते हैं। प्रभु के प्राकट्योत्सव के कारण विशेष रूप से शंख ध्वनि की जाती है एवं साथ ही थाली-मादल, घंटे-घडि़याल, झांझ-मृदंग, सारंगी व बाजे भी बजाए जाते हैं। मंदिर के गोवर्धन पूजा के चौक नामक स्थान पर श्रीनाथ बैण्ड द्वारा मधुर स्वर लहरियों में प्रभु के जन्म की बधाई के पद गाए जाते हैं (मंदिर का अपना एक बैंड भी है जिसे श्रीनाथ बैंड भी कहते हैं)। दर्शनों के दौरान मंदिर में हवेली संगीत के विशेषज्ञ कीर्तनकार भी जन्मोत्सव के पदों का गान करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति प्रभु के पंचामृत स्नान के दर्शनों तथा दर्शनों के पश्चात उस पंचामृत को प्राप्त करने का लाभ उठाना चाहता है अतः मंदिर में लोगों की लंबी कतारें लग जाती हैं और दर्शनार्थियों की भारी भीड़ होती है। पंचामृत स्नान के पश्चात् श्रीनाथजी को विविध रत्नाभूषणों से उनका श्रृंगार किया जाता है। इस श्रृंगार के दर्शन लगभग 10 बजे तक खुलते हैं। ग्वाल के दर्शन भीतर ही होते हैं अर्थात इन्हें दर्शनार्थियों के लिए नहीं खोला जाता है और राजभोग के दर्शन करीब एक-दो बजे तक प्रारंभ होते हैं। राजभोग के दर्शनों में भी कीर्तनियों द्वारा अष्टछाप कवियों के अनेक पदों का गान किया जाता है।

संध्याकालीन दर्शन- उत्थापन एवं भोग-आरती-



शाम के दर्शनों में ‘छठी वाले कोठे’ में ‘छठी’ की निर्मिति होती है। उसमें कहीं स्वस्तिक, कहीं पालना, कहीं बालक कृष्ण को यमुना द्वारा गोकुल ले जाते हुए वसुदेव तथा कहीं कमल चित्रित किए जाते हैं। किसी-किसी छठी में श्रीनाथजी का स्वरूप भी बनाया जाता है। ‘छठी’ का निर्माण बड़े परिश्रम से किया जाता है। उस कलाकृति को देखकर दर्शक मन्त्र-मुग्ध हो जाते हैं। ‘छठी’ की निर्माण बाद ही शंखनाद होता है तथा तत्पश्चात ‘उत्थापन’ के दर्शन खुलते हैं। उत्थापन के बाद निश्चित समय पर ‘भोग-आरती’’ के नियमित दर्शन खुलते हैं।

श्रीकृष्ण का जन्म एवं 21 तोपों की सलामी-



शयन आरती के पश्चात् मंदिर के ‘मणिकोठा’ में, ठीक मुहूर्त पर, अनेक खिलौनों से युक्त ‘साज’ से प्रभु श्रीनाथजी को खेलाया जाता है। उस समय सभी कीर्तनकार मंदिर की ‘गोल डेल्ही’ के पास बैठकर बधाई के पद गाते रहते हैं। रात्रि लगभग 10 बजे प्रभु के रात जागरण के दर्शन खुलते हैं। इन दर्शनों में बहुत ही भारी भीड़ होती है, जिसके लिए मंदिर प्रशासन द्वारा माकूल व्यवस्थाएं की जाती है। लगभग साढ़े ग्यारह बजे श्रीनाथजी के सम्मुख ‘टेरा’ आता है (एक तरह से दर्शन बंद हो जाते हैं)। इस समय मंदिर के मुखिया जी, भीतरिया जी तथा अन्य सेवकगण शांति से ‘मणिकोठा’ में बैठे रहते हैं। तत्पश्चात् ठीक 12 बजे प्रभु का जन्म होने का घंटानाद होता है और ‘मोतीमहल’ की प्राचीर से दो-तीन बार जोर से बिगुल बजाकर प्रभु श्रीकृष्ण के जन्म होने की सूचना की जाती है। इस बिगुल की आवाज आधे किलोमीटर दूर स्थित ‘रिसाले के चौक’ में पहुँचती है तथा वहां स्थित श्रीनाथजी की फ़ौज (गोविन्द पलटन) के कार्मिक इसे जैसे ही सुनते हैं, तो वे प्रभु श्रीनाथजी को यहाँ रखी हुई 400 साल पुरानी तोप से 21 तोपों की सलामी देते है। इन तोपों से गोलों को उसी परम्परा और विधि से दागा जाता है जैसावर्षों पूर्व इनसे फायर किया जाता था। इसके लिए कई दिन पूर्व ही श्रीनाथजी के गार्डों द्वारा मंदिर की अमानत के तौर पर रखे गए 400 साल से भी ज्यादा पुरानी तोप को साफ कर रिसाला चौक में रख देते हैं और आधी रात को जैसे ही मंदिर से कृष्ण जन्म का संकेत मिलता है, इनसे 21 गोले दाग कर प्रभु को सलामी दी जाती है। इन तोपों की भारी गड़गड़ाहट से सारा नाथद्वारा नगर गुंजायमान हो उठता है। इस समय मंदिर में थाली-मादल, मृदंग-झांझ, नगाड़े, शंख आदि बजाए जाते हैं तथा गोवर्धन पूजा के चौक में श्रीनाथ-बैण्ड द्वारा सुमधुर स्वर लहरियों में मंगलगान गाए जाते हैं। तोपों की आवाज को सुनकर नाथद्वारा नगरवासी अपने-अपने घरों में भी प्रभु की आरती करते हैं तथा दिनभर बनाई गई सामग्री का भोग लगाकर जन्मोत्सव मनाते हैं और व्रत खोल कर प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। वर्षों से यहां इसी तरह कृष्ण जन्माष्टमी मनाने की परंपरा है।


जन्म लेने के साथ ही प्रभु बालकृष्ण लालजी को पुनः पंचामृत से स्नान कराकर श्रीनाथजी की गोद में पधरा दिया जाता है। फिर दोनों स्वरूपों के तिलक-अक्षत चढ़ाकर माला धारण कराते हैं। तत्पश्चात् जन्माष्टमी का ‘महाभोग’ आता है। इस महाभोग में विविध सामग्रियों के अलावा ‘पंजरी’ के बड़े-बड़े मोदकों (लड्डुओं) का भोग भी लगाया जाता है। इसके बाद प्रभु को पान का बीड़ा अरोगाया जाता है। यह क्रम एक-डेढ़ बजे तक चलता है। ये दर्शन श्रीनाथजी के विशिष्ट सेवकों के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं होते।


नन्द-उच्छब (नन्द महोत्सव)-



जन्माष्टमी के दूसरे दिन को नन्द-महोत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसमें दर्शनों के अलावा इसका एक अन्य मुख्य आकर्षण प्रातःकाल में ग्वालों द्वारा भक्तों पर दूध-दही का छिड़काव किया जाता है। इस दिन से एक दिन पूर्व अर्थात जन्माष्टमी के दिन, जन्म के दर्शन के पूर्व ही ‘स्वर्ण झूमकों' से युक्त सोने की बहुमूल्य माला को ‘गहनाघर’ से लाकर ‘मणिकोठा’ में रख दी जाती है। साथ ही चांदी के अनेक प्रकार के खिलौने, हाथी, घोड़े, गाएं आदि भी रखे जाते हैं। नन्द महोत्सव के दिन प्रातः श्रीनाथजी और नवनीतप्रियजी के मंदिर के बड़े मुखिया क्रमशः नन्दबाबा और यशोदा मैया का रूप धारण करते हैं एवं आठ अन्य सेवक चार गोपियों तथा चार ग्वालों का स्वरूप धारण करते हैं। श्रीनाथजी स्वरुप के सम्मुख एक सुन्दर पलना रखा जाता है। इस पलने में बाल रूप श्रीनवनीतप्रिया जी अपने मंदिर से यहां लाकर नवजात बालकृष्ण के रूप में झूला झुलाया जाता हैं। नन्दबाबा और यशोदा मैया का स्वरूप धारण किये हुए श्रीनाथजी और नवनीतप्रियजी के बड़े मुखिया जी, चार गोपियां और चार ग्वाल बने हुए लोगों के साथ ‘छठी के कोने’ में जाकर प्रभु का ‘छठी पूजन’’ करते हैं। कीर्तनकार बधाई के पद का गान करते हैं। फिर दोनों दरवाजों की दीवाल पर केसर से पांच-पांच थापे लगाए जाते हैं। इसके पश्चात् मणिकोठा में नन्द, यशोदा, गोपी, ग्वाल, कीर्तनकार आदि सभी नृत्य करते हैं। बाद में दर्शन खुलते हैं। जब दर्शन खुल जाते हैं तो नन्दबाबा और यशोदा मैया दोनों श्री नवनीतप्रियजी को पलने में झुलाते और खिलौने से खेलाते हुए लाड़ लड़ाते हैं। मंदिर की ‘आरती वाली गली’ में रखी हुई दही-दूध की नांदे ‘रतनचौक’, ‘धौलीपटिया’’ और ‘गोवर्धन पूजा के चौक’ में रख दी जाती है। इन नांदों में मिश्रित दूध-दही को लेकर ग्वाल लोग ‘‘नन्द के घर आनंद भयो, जय कन्हैयालाल की, हाथी दीनों, घोड़ा दीनों और दीनी पालकी’’ की जय-जयकार करते तथा नृत्य करते हुए उसके छींटे दर्शनार्थियों पर डाल कर उन्हें दूध-दही से सराबोर कर देते हैं। जिस तरह होली पर रंग फेंका जाता है, उसी तरह जन्माष्टमी पर मंदिर में भक्तों पर दही-दूध छिड़काव करने और जन्मोत्सव को मनाने की अद्भुत धूम मच जाती है। भक्त इस दूध-दही से सराबोर हो जाने को अपना सौभाग्य समझते हैं। सारे मंदिर चहुँ ओर दही-दूध बिखर जाता है। पूरा मंदिर और दर्शनार्थी दूध-दही से नहा जाते हैं। इस दौरान मंदिर में श्रीनाथजी के दर्शन चलते रहते हैं। दूध-दही छिड़काव करने के ये दर्शन प्रातःकाल से लेकर 10-11 बजे तक चलते हैं। जब दही-दूध समाप्त हो जाता है तो फिर दर्शनार्थियों पर जल उछाला जाता है और हण्डियां भी फोड़ी जाती हैं। तत्पश्चात् सेवकगण मंदिर को धोकर साफ़ करते हैं। दर्शन का क्रम जारी रहता है जिसे ‘धुलते मंदिर के दर्शन’ कहते हैं। इसी समय नन्दराय बने हुए बड़े मुखियाजी ‘बैठकजी’ में पधारते हैं। मंदिर के मंदिर के तिलकायत गोस्वामी जी महाराज उन्हें साक्षात नंदबाबा मानकर साष्टांग दण्डवत करते हैं। बाद में मुखियाजी अपने नंदराय स्वरूप का विसर्जन कर देते हैं तथा मंदिर के तिलकायत गोस्वामीजी महाराजश्री के चरणों में नमन करते हैं।
लगभग चार बजे ‘राजभोग’ के दर्शन खुलते हैं। इस समय भी श्रीजी का श्रृंगार पूर्ववत् ही रहता है। भोग-आरती आदि दर्शन रात 9 बजे तक सम्मिलित रूप में होते हैं।


नन्द महोत्सव की तैयारी-



नन्द महोत्सव पर भक्तों पर दूध-दही छांटने के लिए जन्माष्टमी के आठ दिन पूर्व अर्थात रक्षाबन्धन के दिन से ही तैयारी शुरू कर दी जाती है। रक्षाबन्धन के दिन से ही आस-पास के गाँवों के भक्तगण अपने-अपने घरों से प्रभु के लिए दूध की मटकियां लेकर आते हैं और मंदिर में भेंट करते हैं। इसके अलावा श्रीनाथजी की नाथूवास स्थित गौशाला से भी प्रतिदिन दूध आता है। इस दूध को मंदिर में स्थित अन्नकूट की रसोई में सिद्ध करके इसका दही जमा दिया जाता है तथा दही को बड़ी-बड़ी मिट्टी की नान्दों में भरकर मंदिर के ‘कीर्तनिया गली’ नामक स्थल पर रख दिया जाता है। दही की ये नान्दें ही ‘नन्द महोत्सव’ के समय दही का छिडकाव कर भक्तों को जन्मोत्सव के आनंद से सराबोर करने के काम में ली जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रभु श्रीनाथजी का जन्माष्टमी का यह विशिष्ट एवं अद्भुत पर्व नाथद्वारा में बड़े धूमधाम से आयोजित होता है।



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