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राजस्‍व मण्‍डल राजस्‍थान का इतिहास-

पृष्ठभूमि-

राजस्थान में प्राचीन काल से ही भूमि, कृषि तथा इनके प्रशासन का प्रचलन रहा है। भारत में सदा से ही कृषि-भूमि और कृषक ही सर्वोपरि रहा है। यही कारण है कि भारत में विभिन्न शासकों ने भू-राजस्व व्यवस्था को सुनिश्चित करने के लिए प्रशासनिक और कानूनी प्रावधान बनाये थे। अंग्रेजों ने भी ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी के माध्‍यम से भारतवर्ष में अपने शासन की जड़ें जमाने के लिए एक प्रभावी प्रशासनिक संस्‍था के रूप में राजस्‍व-मण्‍डल (Board of Revenue ) की स्‍थापना की, जिसका अनुसरण सभी देशी रियासतों ने किसी न किसी रूप में किया। अंग्रेजों द्वारा स्थापित राजस्‍व मण्‍डल के भू-राजस्‍व प्रशासन की विशेषताएं इसे मुगलों के भू-राजस्‍व प्रशासन से पृथक करती है। इसमें मुख्य अंतर यह था कि अंग्रेजी भू-राजस्व प्रशासन विभिन्‍न्‍ा मण्‍डलों (Boards ) के माध्‍यम से ही संचालित होता था। यह उनका अदभुत एवं सफल प्रशासनिक प्रयोग था। इसकी सफलता को देखते हुए ही स्‍वतंत्रता-प्राप्ति एवं रियासती एकीकरण के बाद भी इसे बनाए रखना आवश्‍यक समझा गया। पिण्‍डारी युद्वों तथा मराठों के आक्रमणों से बचने के लिए राजपूताना की विभिन्न देशी रियासतों ने ब्रिटिश शासन की सुरक्षा स्‍वीकार की। इसके लिए उन्हें ब्रिटिश शासन की कतिपय शर्तें स्‍वीकार करनी पड़ी। धीरे-धीरे उन पर ब्रिटिश शासन का नियंत्रण बढ़ता गया। परिणामस्‍वस्‍प उन्होंने सम्‍प्रभु राज्‍य होने का अपना राजनैतिक स्‍तर खो दिया तथा वे ब्रिटिश अधिसत्‍ता के नियन्‍त्रण में आ गए और ब्रिटिश अधिसत्‍ता देशी रियासतों के शासन की आन्‍तरिक सम्‍प्रभुता में भी भागीदार बन गई।


स्वतंत्रता से पूर्व देशी रियासतों में कृषि एवं भू-राजस्व-



  • राजपूताने की देशी रियासतों में राजा या नवाब या शासक को अपनी राज्‍य-सीमाओं में सर्वोच्‍च दीवानी एवं मौलिक क्षेत्राधिकार प्राप्त थे, परन्तु वास्‍तव में वहां कोई विधिवत कानून नहीं था।

  • राजा नैतिकता के प्रभाव से बंधी परम्‍पराओं अथवा राजनैतिक एजेन्‍ट के माध्‍यम से व्‍यक्‍त ब्रिटिश सरकार के भय के भीतर कार्य करते थे। ब्रिटिश एजेन्‍ट सर्वप्रथम मेवाड़, जयपुर, मारवाड़, भरतपुर और हाड़ौती रियासतों में रखे गये थे।

  • रियासतों में शासक तथा उसके कतिपय मंत्री ही सर्वेसर्वा थे। इन मंत्रि‍यों को शासक द्वारा कतिपय अधिकारों का हस्तांतरण कर दिया जाता था।

  • इसके पश्‍चात भू-स्‍वामियों का कुलीन-तंत्र का वर्ग था, जो प्रायः सत्‍तासीन परिवार से ही जुड़ा होता था। उन्हें या उनके पूर्वजों को युद्ध में सेवाएं देने अथवा कला के क्षेत्र में योगदान करने के उपलक्ष्य में जागीरें या भू-क्षेत्र दिये गए थे। जब तक वे या उनके उत्‍तराधिकारी शासक के प्रति अपने दायित्‍वों की पूर्ति करते रहते, उनके अनुदानों (grants) का पुनर्ग्रहण नहीं किया जाता था।

  • यह सामन्‍ती प्रथा मुगल-शासन के दौरान ग्रहण की गई थी।



जमींदार-



  • राजस्‍थान की रियासतों में 60 प्रतिशत से अधिक भूमि भू-स्‍वामियों, जागीरदारों, जमींदारों या मालिकों के पास थी। वे अपने खातेदारों से ‘राजस्‍व’ या ‘लगान’ वसूल किया करते थे, किन्‍तु उस एकत्रि‍त धनराशि का बहुत छोटा भाग ही वे रियासत को देते थे।

  • वे 8 प्रतिशत या इससे कुछ अधिक आमदनी ‘उपहार’ या ‘नज़राने’ के रूप में भी देते थे।

  • वे रियासत की सेवा हेतु निश्चित संख्‍या में घुडसवार तथा पैदल-सैनिक भी तैयार रखते थे। ये कुलीन भूस्‍वामी ही अपनी जागीरों में प्रजा के जीवन, सम्‍पत्ति और शान्ति की सुरक्षा के लिये उत्‍तरदायी थे।

  • ये अपने आसामियों या खातेदारों के बीच छोटे-मोटे दीवानी और फौजदारी-मामलों का निपटारा भी करते थे। इन मामलों में उनके अधिकार एक से नहीं थे। सब कुछ परम्‍परा, रीति-रिवाजों आदि पर ही निर्भर था। इसमें सामन्‍त की प्रस्थिति निर्णायक होती थी।

  • किसान और राजा के बीच बीसियों प्रकार के बिचौलिये होते थे। इस कारण भी किसानों की स्थिति दयनीय थी। बिचौलिये, किसानों से अधिकाधिक लगान और ‘लाग-बाग़’ ले कर उनका अमानवीय शोषण करते थे।

  • लगान वसूली हेतु प्रायः एक से लेकर पांच वर्ष की अवधि के लिए दलालों या ठेकेदारों को गांव के गांव पट्टे पर दे दिये जाते थे।

  • रियासत के पास कोई अधिकार नहीं थे। कहीं भी उपयुक्‍त खातेदारी कानून नहीं थे। कानूनी दृष्टि से किसान या जोतदार मर्जी-दां-खेतिहर था।

  • केवल परम्‍परा और रीति-रिवाज के आधार पर ही, जब तक उसके पूर्वज लगान देते, तब तक ही उसको उसके द्वारा जोती गई कृषि भूमि से बेदखल नहीं किया जाता था।

  • शासन व बिचौलियों को छोड़ कर सिद्धांततः राजा ही सम्पूर्ण भूमि का एकमात्र स्‍वामी माना जाता था और उसी की इच्‍छा सर्वोपरि थी।


परिषद-



  • राजा या शासन के पास परामर्श हेतु कुलीन सरदारों या विशिष्‍टजनों की एक परिषद या कार्यकारिणी होती थी, जिसका काम प्रशासनिक मामलों में राजा को सलाह देना होता था। उन्हें ‘मंत्री’ या ‘मेम्बर’ कहा जाता था। वे केवल राजा के प्रति उत्‍तरदायी थे। किसी-किसी प्रगतिशील राज्‍य में राजा की ‘कार्यकारिणी’ या ‘परामर्श-परिषद’ में एक सदस्‍य और होता था-जिसे ‘राजस्‍व मंत्री' कहा जाता था। छोटी रियासतों में इसके पास राजस्‍व विभाग के अलावा अन्य विभाग भी होते थे।

  • ब्रिटिश शासन के आगमन के पश्‍चात कुछ परामर्श एवं लोकप्रिय निकाय भी उपयोग में लाए जाने लगे। बस बीकानेर राज्य ही एकमात्र अपवाद था।

  • खालसा या राजा की भूमि को छोड़ कर लगान आंकने या कूंतने के तौर-तरीके दकियानूसी, दमनकारी एवं अविवेकपूर्ण थे।

  • राजस्‍व-प्रशासन की सबसे नीचे की कड़ी ‘चौकीदार’ या गांव का ‘मुखिया’ था, जिसे नज़राने की मोटी रकम लेने के बाद ही राज्य द्वारा नियुक्‍त किया जाता था। ये ‘मुखियागण’ हवलदार या स्‍थानीय एजेन्‍टों के साथ सांठ-गांठ करके किसानों शोषण करते थे।

  • भू-राजस्‍व प्रशासन सामन्‍ती-स्‍वामियों की दया पर निर्भर था। मेवाड़, मारवाड़, जयपुर आदि में कृषि-भूमि का बड़ा भाग ठाकुरों और सरदारों की निजी जागीर बन चुका था। समूचे राजपूताना की 18 रियासतों की कुल सालाना आमदनी 23,50,000 पौंड थी, जिसमें राजस्‍व आय 15,00,000 पौंड थी।

  • इस तरह देशी रियासतों की आमदनी में भू-राजस्‍व का हिस्सा 64 प्रतिशत था, फिर भी ये रजवाड़े काश्‍तकारों की दशा सुधारने का कोई प्रयास नहीं करते थे।

  • चूंकि राजस्‍व प्रशासन रियासतों का ‘आन्‍तरिक मामला’ था, इसलिए ब्रिटिश शासन चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकता था। उलटे सामन्‍ती रजवाड़े आधुनिकीकरण-औद्योगिकीकरण, तकनीकी, विज्ञान, अंतरक्षेत्रीय व्‍यापार आदि के भी घोर विरोधी थे, इसलिए कृषि और काश्तकार दोनों की स्थिति ठीक वैसी ही दयनीय बनीरही, जैसी सैकड़ों साल पहले थी।

  • वसूली एवं कूंत के नियम स्‍वेच्‍छाचारितापूर्ण थे। केवलकुछ ही रियासतें राजस्‍व की वसूली, नकद में करती थीं, अधिकांश रियासतों में राजस्‍व अनाज या वस्‍तु के रूप में लिया जाता था।

  • उस समय का राजस्व-अधिकारी केवल देखकर मोटा अनुमान लगाता था और खड़ी फसल की ‘मात्रा’ की कूंत करता तथा उसमें रियासत या राज का भाग निर्धारित करता था।

  • राज का भाग या अंश एक तिहाई और छठे भाग के बीच होता था। इस भाग के अतिरिक्‍त कृषि उपज में बीसियों प्रकार के भागीदार और भी होते थे, जिन्हें भी आम काश्‍तकार कुछ न कुछ देनेके लिए मजबूर होता था।



स्‍वाधीनता संग्राम और किसान आन्‍दोलन-



  • अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहले तो देशी रियासतों के किसानों की समस्‍याओं की ओर ध्‍यान देना उपयुक्‍त नहीं समझा, पर काफी ऊहापोह और हिचकिचाहट के बाद अंततः देशी-रियासतों में ‘प्रजा मण्‍डल’ स्‍थापित किए।

  • काश्‍तकार, जो भूमि के कुप्रबन्‍ध तथा जागीरदारों के शोषण एवं अत्‍याचारों से पीड़ित थे, तत्काल इन प्रजामंडलों की ओर आकर्षित हो गए। वे भूमि-सुधार हेतु आन्‍दोलन तक करने के लिए तत्पर हो गये।

  • कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं से प्रेरित एवं निर्देशित होकर शीघ्र ही रियासती आन्‍दोलनों ने अखिल भारतीय रूप धारण कर लिया। प्रारम्भिक अवस्‍था में, इन प्रजामंडलों के विरुद्ध रियासती शासकों की बहुत तीखी, भयानक एवं हिंसात्‍मक प्रतिक्रिया हुई, परन्‍तु गोलमेज परिषद में हुए विचार-विमर्श ने इन देशी शासकों को अपने अधिनायकवादी दृष्टिकोण में थोड़ी नरमी लाने के लिये विवश कर दिया।

  • प्रजामंडलों की राष्ट्रीय-कांग्रेस के साथ एकता एवं ताकत इतनी अधिक थी कि ब्रिटिश सरकार का स्‍वतंत्र देशी रियासतों को उकसा कर भारतवर्ष को 562 स्‍वतंत्र या सम्‍प्रभु राज्‍यों में विभाजित करने का षडयंत्र विफल हो गया।

  • परिणामस्‍वरूप स्‍वाधीनता प्राप्ति के अवसर पर देशी राजाओं के समक्ष भारत-संघ (Indian Union) में शामिल होने के अलावा और कोई राजनैतिक विकल्‍प शेष नहीं रहा।

  • यदि ये रियासतें ऐसा नहीं करतीं, तो उनके सामने अधिसत्‍ता-समाप्ति के बाद भारत-संघ में शामिल नहीं होने वाले राजाओं को जन-आन्‍दोलनों का सामना करना तथा अंततः अपनी गद्दी से ही हाथ धोना पड़ता।

  • कृषि एवं भूमि सुधार की आशाओं ने अपने रियासती-प्रभुओं को सम्‍पूर्ण भारत के सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक आन्‍दोलनों के साथ एक होने के लिये भारी दबाव डाला। अधिकांशतः रियासती कुशासन सचमुच इतना अधिक जनविरोधी था कि किसी भी रियासत की प्रजा ने राजाओं को बनाये रखने के लिए कहीं भी एक भी आन्‍दोलन नहीं किया।

  • राजस्‍थान में, अनेक रियासती राजनेताओं ने काश्‍तकारों की पीड़ा दूर करने का बीडा उठाया। उन्होंने विभिन्न रियासतों में ‘प्रजामंडल,’ ‘प्रजा परिषद’, ‘लोक-परिषद’ आदि जन समर्थित संगठनों का गठन किया। अनेक वर्षों तक इन संगठनों के नेताओं को निष्‍कासित, आतंकित एवं दण्डित किया गया। अलवर, भरतपुर, करौली तथा धौलपुर में अनेक हिंसात्‍मक काण्‍ड घटित हुए।

  • सन् 1930 में शेखावटी, जयपुर, टोंक और किशनगढ में भी ऐसे ही व्यापक जन-आन्‍दोलन फैले। सन् 1921 के बिजौलिया के किसानों ने जागीरदारों के अत्‍याचारों के विरुद्ध एक प्रभावशाली सत्‍याग्रह आन्‍दोलन चलाया।

  • फरवरी, 1933 में उदयपुर में भी किसान-विद्रोह हुआ। 24 अप्रैल, 1938 को मेवाड़ प्रजामंडल की स्‍थापना हुई, जिसने कालान्‍तर में सारे राजपूताना में राजनैतिक जागृति की लहर उत्‍पन्‍न कर दी।

  • सन् 1945 में जवाहरलाल नेहरू की अध्‍यक्षता में राजस्थान की देशी रियासतों की जनता का विशाल सम्‍मेलन उदयपुर में आयोजित हुआ। डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा जैसी छोटी रियासतों के लोग भी इस आंदोलन में शिरकत करने उठ खड़े हुए।

  • 1930 से 1940 के मध्‍य में देशी रियासतों के लोग अलग-अलग रियासतों की सीमाओं से बंधे नहीं रह गये, वे राजपूताना की प्रजा तथा भारत के नागरिक बन गये। यही कारण है कि सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता ब्रिटिश सरकार तथा देशी राजाओं के विघटनात्‍मक उद्देश्‍यों को चकनाचूर करने में कूटनीतिक तौर पर भी सफल हो सके।

  • विश्‍व के अधिकांश हिस्सों में भूप्रबन्‍ध की अवहेलना तथा किसानों का शोषण, साम्राज्‍यों एवं सरकारों का तख्तापलट करने का मूल कारण रहा है।

  • भारतवर्ष में मुगल शासकों ने बिचौलियों को अपना आधार स्‍तम्‍भ बनाया और उन्हें काश्‍तकारों का मनमाना शोषण करने के लिए खुला छोड़ दिया। ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी ने इस स्थिति को भांप लिया था और बंगाल में उन्होंने दीवानी एवं फौजदारी शक्तियों सहित भूमियों का अधिकार प्राप्‍त कर लिया। इसके परिणामस्‍वरूप वे युद्ध, कूटनीति एवं कुशल शासन के आधार पर सारे भारत पर अपना राजनैतिक साम्राज्‍य स्‍थापित करने सफल हो गए।

  • किन्‍तु वे अपने व्‍यापारिक एवं माली हितों की अभिवृद्धि में ही लगे रहे। उनकी असल दिलचस्पी भू-सुधारों में कम और भू-राजस्‍व की वसूली में ही ज्यादा थी, इसलिए उन्होंने भी मुग़ल-काल के शासकों ही की तरह किसानों को जमींदारों और साहूकारों की मनमानी के हाथों खुला छोड़ दिया। इधर देशी शासकों की शोषण व्‍यवस्‍था भी समान्तर रूप से फलती-फूलती रही। विदेशी होने के कारण अंग्रेजों को स्थानीय विरोध, जनप्रतिरोध और नौकरशाही के विद्रोह का भय तो था, किन्‍तु रियासती स्‍वदेशी शासकों को तो ऐसे किसी जनविद्रोह की आशंका ही न थी।

  • इस कारण ब्रिटिश प्रान्‍तों तथा देशी रियासतों के काश्‍तकारों की परि‍स्थितियों एवं अधिकारों में बड़ा अन्‍तर था। देशी रियासतों के काश्‍तकारों के असन्‍तोष ने ही राजाओं के स्‍वतंत्र बने रहने का सपना चकनाचूर कर दिया। लोग स्‍वाधीनता प्राप्ति के पश्‍चात इन राजाओं के हाथों में सत्‍ता या शक्ति सौंपने के लिए तैयार ही नहीं थे।

  • प्रारम्‍भ में छोटी देशी रियासतें जन-समर्थन के समक्ष झुकीं और बाद में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और उदयपुर जैसी बड़ी रियासतें भारत संघ में विलीन हुईं। राजपूताना या रायथाना की समस्‍त देशी रियासतें अंततः भारत संघ का अविच्छिन्‍न अंग बन गई।


रियासतों में राजस्‍व-मंडलों की शुरूआत-



  • ब्रिटिश शासन के प्रभाव से रियासतों ने भी भूमि प्रशासन की ओर थोड़ा बहुत ध्‍यान दिया। वे अपने-अपने राजस्‍व विभागों का पुनर्गठन करने लगे। उन्होंने राजस्‍व सम्‍बन्‍धी परिषदों, समितियों अथ्‍वा मंडलों का गठन करना प्रारम्‍भ किया।

  • बीकानेर एवं जयपुर रियासतों में क्रमशः 1909 तथा 1942 में राजस्‍व मण्‍डल गठित किये गये।

  • इन्हें इस तरह गठित करने का उदेश्‍य प्रशासन में केन्‍द्रीकरण, कार्यकुशलता, प्रभावी नियन्‍त्रण एवं निरीक्षण तथा कार्य का शीघ्र निस्‍तारण करना था। इन मंडलों के पास भू- राजस्‍व के अलावा सीमा शुल्‍क, आबकारी, नाबालिग- संरक्षण, पशुबंध, मुद्रा एवं पंजीयन आदि जैसे कार्य भी थे।

  • बीकानेर के राजस्‍व मण्‍डल के पास नाजिम, तहसीलदार, नायब तहसीलदार आदि के चयन हेतु सिफारिशें प्रस्‍तुत करने का काम भी था। ये मंडल नियम सम्‍बन्‍धी प्रस्‍ताव तैयार करके महाराजा के सम्‍मुख प्रस्‍तुत करते थे। ये नियम जिला अधिकारियों, लगान निर्धारण, लगान मुक्‍त भूमि अनुदान, भूमि का हस्‍तान्‍तरण, बेदखली, फेरबदल, राजस्‍व में कमी, वसूली स्‍थगन आदि विषयों से सम्‍बन्धित थे।

  • जयपुर रियासत का राजस्‍व मंडल सभी राजस्‍व मामलों में अन्तिम अपीलीय न्‍यायालय भी बनाया गया। उसमें सदस्‍यों की श्रेणियां वरिष्‍ठ तथा कनिष्‍ठ सदस्‍य थीं। बूंदी जैसी छोटी रियासत में भी राजस्व मंडल था, किन्‍तु इसे अपवाद ही मानना चाहिए। राजस्‍व मंडल हो या न हो, काश्‍तकारों की परिस्थिति पूर्ववत बनी रही। इसी तरह सामन्‍ती प्रथा भी पहले ही की तरह बनी रही।



संक्रान्तिकालीन व्‍यवस्‍था-



  • भारत-संघ में शामिल होते समय राजस्‍थान की जनसंख्‍या 201.5 लाख थी, जिसमें 1951 में 8.95 लाख शिक्षित नागरिक थे।

  • उसके समूचे भू-क्षेत्र 3.40 लाख वर्ग किमी में से मात्र 0.01 लाख वर्ग किमी ही शहरी क्षेत्र था।

  • उस समय 32,240 गांवों में राजस्‍थान की 83.7 प्रतिशत आबादी रहती थी। इनमें से भी 76.7 प्रतिशत आबादी केवल कृषिकार्य में लगी हुई थी।

  • समस्‍त गांवों में से 67 प्रतिशत गांव 500 से भी कम आबादी वाले थे।

  • राजस्‍थान की भूमि का 56.8 प्रतिशत भाग एकदम सूखा रेगिस्तानी क्षेत्र था। राजस्‍थान वस्‍तुतः हजारों छोटी-छोटी ढाणियों, गवाडों, गांवों तथा बिखरी हुई आबादी-बस्तियों का प्रदेश था।

  • राजस्‍थान के बहुत बडे भाग में सर्वेक्षण-कार्य और भूमि-बन्‍दोबस्‍त नहीं हुआ था। जब भू-अभिलेख निदेशालय की स्‍थापना की गई थी, उस समय 3,387,94 वर्ग किमी में से केवल 2,136,42 वर्ग किमी क्षेत्र ही ‘बन्‍दोबस्‍त’ के अन्‍तर्गत आ पाया था। यहां तक कि पटवार-संस्‍था केवल 1,736,02 वर्ग किमी क्षेत्र में ही उपलब्‍ध थी।

  • राजा या शासक ही अन्तिम अपील का न्‍यायालय था। वही स्‍वेच्‍छा से न्‍यायाधीशों को नियुक्‍त करता एवं हटाता था। समस्‍त भूमि का 60.7 प्रतिशत भाग जागीरदारों के तथा शेष 39.3 प्रतिशत भाग खालसा अर्थात शासक के पास था।

  • जागीरदार समस्‍त समस्‍याओं का स्रोत थे। अन्‍य बिचौलिये- ज़मींदार एवं बिस्‍वेदार भी शोषण के ही माध्यम थे। अन्‍यायपूर्ण राजस्‍व दरों, तरह-तरह के करों तथा माँग आदि के लिए आम किसान पर निर्बाध अत्‍याचार किये जाते थे।

  • नये राज्‍य का 207920 वर्ग किमी भाग विविध प्रकार के जागीरदारों के अधिकार में था। जोधपुर और जयपुर में तो क्रमशः उन रियासतों का 82 तथा 65 प्रतिशत भाग इनके पास था।

  • भारत संघ में विलीन होने वाली अधिकांश राजपूताना रियासतों में किसी न किसी प्रकार के राजस्‍व-कानून थे, किन्‍तु ये शोषणकारी नीतियों-रीतियों को ही कानूनी जामा पहनाने की व्यवस्था थी।

  • काश्‍तकार खातेदारी अधिकारों की सुरक्षा, लगान की स्थिरता और उपयुक्‍तता का ‘क ख ग’ भी नहीं जानता था। सबसे उंची बोली लगाने वाले को खेती के लिए भूमि दे दी जाती थी, जिसका परिणाम होता था- अनुचित प्रतियोगिता, अधिकतम लगान वसूली और भूमि गुणवत्‍ता में गिरावट।

  • विभिन्‍न्‍ा देशी रियासतों में अलग अलग कानून थे। कुछ राज्‍यो में तो मिश्रित दीवानी एवं राजस्‍व कार्यालयों को ही बोली लगाकर वर्ष भर के लिए पट्टे पर उठा दिया जाता था। पट्टे या ठेके को लेने वाला पट्टेदार कृषक से मनमानी वसूली करता था।

  • जब उसके कुकृत्‍यों के विरूद्व जनआक्रोश व्‍यापक हो जाता, तो शासक उस पट्टेदार को उगाही हुई रकम लौटाने तक बंदी बना लेता। उसे भारी जुर्माना, जिसे उसने पहले से ही गरीब काश्‍तकारों से वसूला था, देने पर ही छोड़ा जाता।

  • प्रायः उसे या उसके वारिस को पुनः नियुक्‍त कर दिया जाता था। शासक वस्‍तुतः काश्‍तकारों के शोषण में स्वयं भागीदार था।

  • स्‍वाधीनता प्राप्ति तथा देशी रियासतों के भारत संघ में विलयन के सन्‍दर्भ में, कानूनी अधिकार मिलते देख कर बिचौलियों ने खातेदार-किसानों को क्रूरता एवं स्‍वेच्‍छाचारी तरीकों से बेदखल करना शुरू कर दिया।

  • लड़ाई-झगडे, संघर्ष और विवाद बढ़ने लगे तथा कानून और व्‍यवस्‍था की स्थिति बिगड़ने लगी। किसानों को भारी तादाद में बेदखल होते देख कर, राजस्‍थान सरकार ने उसकी रक्षार्थ अनेक अध्‍यादेश और अधिनियम जारी किये।

  • किन्‍तु समस्‍त राजस्‍थान के लिए एक समान कानूनी संस्‍था के अभाव में किसान एवं आम जनता सन्‍देह, विभ्रम तथा अस्‍पष्‍टता से ग्रसित हो गई। स्‍वयं अधिकारी गण भी उनके अर्थ और व्‍याख्‍या के विषय में सुनिश्चित नहीं थे। भूलेखों में समानता तथा एक कार्यान्‍वयनकारी प्रभावी प्रशासनिक संस्‍था का अभाव था।

  • देशी रियासतों का भारत-संघ में एकीकरण स्‍वयं में चुनौतीपूर्ण काम था। कर्मचारियों की सेवा शर्तों, वेतनों, कार्यों की प्रकृति आदि में समरूपता का अभाव था। वित्‍तीय मामलों में भी अराजकता थी। राजस्‍थान की राजधानी भी एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान पर बदली जाती रही। यद्यपि एकीकरण का मुख्‍य स्रोत भारत सरकार थी, किन्‍तु देशभक्ति का शंख फूंकने वाले शक्तिशाली राजनैतिक संगठनों के अभाव में नई राजस्‍थान सरकार, आन्‍तरिक दृष्टि से दुर्बल थी।

  • प्रजामंडल भी आम जनता के जीवन में गहरी जड़ें नही जमा पाये थे। वे गुटों में बंटे हुए थे तथा सामन्‍तशाही, ईर्ष्‍या और विद्वेष से सराबोर थी। वास्‍तव में देखा जाये तो भारत की स्‍वाधीनता के प्रारम्भिक बरसों में काश्‍तकारों पर जागीरदारों और जमींदारों के अत्‍याचार चरम सीमा को भी पार कर गये थे।



आन्‍तरिक संवैधानिक व्‍यवस्‍था-



विलीनीकरण-प्रपत्रों में एक उपधारा यह जोड़ी गई थी कि “राजप्रमुख तथा मंञिमंडल समय-समय पर दिए जाने वाले भारत सरकार के निर्देशों एवं नियन्‍त्रण के अधीन कार्य करेंगे”


इसके अनुसार कार्यकुशलता से राजस्‍थान के एकीकरण तथा लोकतन्‍त्रीकरण की प्रक्रिया को पूरा करना शुरू कर दिया गया। उक्‍त उपधारा ने, जो तत्‍कालीन लोकप्रिय नेताओं की सहमति से प्रवर्तित की गई थी, केन्‍द्रीय सरकार को अन्‍तरिम काल में राजस्‍थान के एकीकरण, सुदृढीकरण तथा सुशासन स्‍थापना करने का अवसर प्रदान किया।


यह व्‍यवस्‍था की गयी कि सभी विधियों, बजट, उच्‍च न्‍यायालय के मुख्‍य न्यायाधीश, राजस्‍व मंडल के सदस्‍यों, लोक सेवा आयोग के सदस्‍यों आदि की नियुक्ति में भारत सरकार की स्‍वीकृति ली जायेगी।


परामर्शदाता (Advisors)-


इस उत्‍तरदायित्‍व का निर्वहन करने के लिए केन्‍द्र सरकार ने कानून एवं व्‍यवस्‍था, एकीकरण, वित्‍त राजस्‍व आदि विभागों में परामर्शदाता (Advisors) नियुक्‍त किये। ये उत्‍तर प्रदेश तथा पड़ौसी प्रान्‍तों से लाये गये थे।


अखिल भारतीय महत्‍व के मामलों में इन विभागों में निर्णय उन्हीं के माध्‍यम से लिया जाता था। ये मंञिमंडल की बैठकों में भी भाग लेते थे तथा महत्‍वपूर्ण मामलों में अपनी राय भी व्‍यक्‍त करते थे। उन्‍हे मत (Vote) देने का अधिकार नहीं था।


धीरे-धीरे देशी रियासतें राजस्‍थान के रूप में भारत संघ की, अन्‍य प्रान्तों के समान, अंगात इकाई बन गई।


भारत के नये संविधान को स्‍वीकार करने का अधिकार राजप्रमुख को दिया गया। 23 नवम्‍बर 1949 को राजप्रमुख ने उदघोषणा जारी की कि अब से संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान ही राजस्‍थान के लिए संविधान होगा तथा उसके प्रावधान ही सर्वोपरि होंगे।


वृहत्‍तर राजस्‍थान की इकाई (संघ) ने 7 अप्रैल, 1949 से भारत सरकार के निर्देशन में कार्य करना शुरू किया था। अन्तिम संविदे (Covenant) के अन्‍तर्गत महामहिम राजप्रमुख ही राजस्‍थान की एकमात्र विधि निर्मात्री तथा कार्यकारिणी सत्‍ता था। भारत के संविधान के प्रवर्तित होने तक यही व्‍यवस्‍था लागू रही।


प्रमुख निर्वाचन के पश्चात् 3 मार्च 1952 को प्रथम लोकप्रिय मंञिमंडल ने कार्यभार ग्रहण किया। अनुच्‍छेद 3 के अधीन रहते हुए नये भारतीय संविधान ने प्रान्‍तों (एवं देशी रियासतों की इकाईयों) को राज्‍यों के समस्‍त अधिकार (राज्‍य सूची) सौंप दिये।


राज्‍य सूची के विषयों में, अन्‍य के अलावा, उल्‍लेखनीय विषय निम्नांकित हैं-


न्‍याय, सर्वोच्‍च न्‍यायालय एवं उच्‍च न्‍यायालय के गठन को छोड़ कर समस्‍त न्‍यायालय, राजस्‍व न्‍यायालय, राजस्‍व, भूमि अधिकार, भू-स्‍वामियों एवं खातेदारों के मध्‍य सम्‍बन्‍ध, कृषि भूमि हस्‍तान्‍तरण, बंटवारा आदि, भूमि पर ऋण, कूंत, वसूली आदि, भू अभिलेख, सर्वेक्षण, बन्‍दोबस्‍त आदि।


तदनुसार राजस्‍थान को पांच संभागों (divisons) तथा 24 जिलों में विभाजित किया गया। राज्‍य की मूल एवं प्रमुख समस्‍या कृषि एवं भूमि सुधारों से संबंधित थी। उस समय समरूप खातेदारी विधियां राजस्‍थान की प्रमुख आवश्‍यकता थी। भूमि प्रशासन को तुरन्‍त पुनर्गठित किया जाना था। इस दिशा में राजस्‍व मंडल का पुनर्गठन शीघ्र ही किया गया। समस्‍त राजस्‍थान अर्थात राजपूताने की सभी एकीकृत रियासतों के लिए एक राजस्‍व मंडल की स्‍थापना की गई।



राजस्‍व मंडल की स्‍थापना-



पूर्व समस्‍याओं को हल करने के लिये राजस्‍थान में शामिल होने वाली रियासतों के उच्‍च बन्‍दोबस्‍त और भू-अभिलेख विभाग का पुनर्गठन एवं एकीकरण किया। उस समय इस विभाग का एक ही अधिकारी था जो कई रूपों में कार्य करता था, यथा- बन्‍दोबस्‍त आयुक्‍त, भू-अभिलेख निदेशक, राजस्‍थान का पंजीयन महानिरीक्षक एवं मुद्रांक अधीक्षक आदि।


एक वर्ष बाद, मार्च 1950 में भू-अभिलेख, पंजीयन एवं मंद्रा विभागों को बन्‍दोबस्‍त विभाग से पृथक कर दिया गया।


भू अभिलेख विभाग के निदेशक को ही पदेन मुद्रा एवं पंजीयन महानिरीक्षक बना दिया गया।


भू-अभिलेख निदेशक की सहायता के लिये तीन सहायक भू अभिलेख निदेशक नियुक्‍त किये गये। इन सभी निकाय गठित किया गया। इसे राजस्‍व मंडल कहा गया। इसका कार्य राजस्‍व वादों का भय एवं पक्षपात रहित होकर उच्‍चतम स्‍तर पर निर्णय करना था।



राजस्‍व मंडल के लिए अध्‍यादेश-



  • संयुक्‍त राजस्‍थान राज्‍य के निर्माण के पश्‍चात महामहिम राजप्रमुख ने 7 अप्रैल 1949 को अध्‍यादेश की उद्घोषणा द्वारा राजस्‍थान के राजस्‍व मंडल (Board of Revenue for Rajasthan) की स्‍थापना की।

  • यह अध्‍यादेश 1 नवम्‍बर 1949 को प्रवर्तित हुआ था, उसने बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, मत्‍स्‍य तथा पूर्व राजस्‍थान के राजस्‍व मंडलों का स्‍थान ले लिया। ये राजस्‍व मंडल विविध विधियों के अधीन रियासतों में कार्य कर रहे थे। सम्‍पूर्ण राजस्‍थान के लिए एकीकृत विधियां बनने तक ये कार्य करते रहे।

  • 1 नवम्‍बर, 1949 से इन राजस्व मंडलों ने कार्य करना बन्‍द कर दिया। इनके पास बकाया वादों को संभाग के अतिरिक्‍त आयुक्‍तों को स्‍थानान्‍तरित कर दिया गया। इन वादों में जो अपील, पुर्नव्‍याख्‍या (रिवीजन) आदि से संबंधित विवाद थे, उन्हें नये राजस्‍व मंडल, राजस्‍थान को पुनः स्‍थानान्‍तरित कर दिया गया।

  • इस प्रकार राजस्‍व मंडल, राजस्‍थान, राजस्‍व मामलों में अपील रिवीजन (पुर्नव्‍याख्‍या) तथा सन्‍दर्भ (रेफेरेन्‍स) का उच्‍चतम न्‍यायालय बन गया। साथ ही उसे भू-अभिलेख प्रशासन तथा अन्‍य विधियों का प्रशासन भी सौंपा गया।

  • अधिकांश राजस्‍व अधिकारी कार्यपालिका अधिकारी तथा न्‍यायालय होने के नाते द्विपक्षीय कार्य करते हैं। इसलिये यह आवश्‍यक है कि उनके व्‍यक्तिगत निर्णयों को किसी बहुल निकाय के विचार-विमर्श से उपजात निर्णयों का सहारा दिया जाए।



राजस्‍व मंडल गठन का महत्त्व-



राजस्‍व मंडल को डांवाडोल राजनीति के पक्षपात से मुक्‍त प्रशासनिक अनुभव का अत्‍यन्‍त समृद्व न्‍यायिक निकाय बनाया गया। ऐसा गरीब, अनपढ, अबोध तथा दूरस्‍थ काश्‍तकारों के हितों की रक्षा के लिए किया गया। उनके लिये न्‍यायपालिका और कार्यपालिका को पृथक रखने का सुप्रसिद्व शक्ति पृथक्‍करण का सिद्वान्‍त भी एकतरफ कर दिया गया।


दीवानी न्‍यायालयों की न्‍यायिक प्रक्रिया प्रायः धीमी, खर्चीली तथा जटिलताओं से परिपूर्ण होती है। उस कारण सामान्‍य किसान को उसके कष्‍टों एवं समस्‍याओं से वांछनीय छुटकारा नही दिला सकती। अतएव राजस्‍व मंडल को एक अधिकरण (Tribunal) के रूप में अलग रखा गया है।


भूमि संबंधी विवाद अत्‍यन्‍त जटिल होते हैं। उन्‍हें क्षेत्र में जा कर उपलब्‍ध तथ्‍यों के ठोस आधार पर पहुंचे हुए अधिकारियों द्वारा ही समझा जा सकता है। भूमि संबंधी मामले राज्‍य की अधिकांश जनता से साधा संबंध रखते हैं । अतएव उनसे राज्‍य की विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रो की शान्ति एवं व्‍यवस्‍था जुडी हुई होती है।


विवादों में फंसे गरीब वादियों को, अनावश्‍यक औपचारिकताओं में उलझाए बिना, सस्‍ता, शीघ्र और सुलभ न्‍याय मिले, इन सभी आशाओं, विश्‍वासों एवं क्षमताओं का राजस्‍व मंडल को अधिष्‍ठान बनाया गया है।



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