Skip to main content

Useful important fact about sumptuous sculptures of Rajasthan -- राजस्थान के वैभवशाली मूर्तिशिल्प से संबंधित उपयोगी महत्वपूर्ण तथ्य-






1.     राजस्थान में मूर्तिशिल्प का इतिहास आज से लगभग 4500 वर्ष पुराना है।

2.     कालीबंगा (हनुमानगढ़) से प्राप्त हड़़प्पाकालीन सांस्कृतिक पुरासामग्री में मिट्टी तथा धातु की लघु मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

3.      कालीबंगा से प्राप्त ताम्र-निर्मित लघु आकार का वृषभ राजस्थान में प्राप्त धातु प्रतिमा का प्राचीनतम उदाहरण है। इसका आकार 7 से.मी. लंबा तथा 4 से.मी. चौड़ा है। इसका काल ईसा पूर्व 17 सदी माना गया है।

4.     कालान्तर में दूसरी शताब्दी ई. पू. की कई शुंगकालीन मूर्तियाँ नगर (टौंक) एवं रैढ़ (टौंक) से मिली हैं, जो लाल मिट्टी की पकाई हुई हैं।

5.     ब्रजमण्डल के सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र में होने के कारण प्रारम्भिक मूर्तिकला के उद्भव व विकास में पूर्वी राजस्थान (भरतपुर क्षेत्र) ने विशिष्ट भूमिका निभायी। इस युग की यक्ष-यक्षी की मूर्तियाँ भरतपुर संग्रहालय में सुरक्षित हैं। नोह (भरतपुर) से प्राप्त इस युग की यक्ष-यक्षी की मूर्तियाँ उल्लेखनीय है।

6.     नोह में जाखबाबा की विशालकाय प्रतिमा शुंगकालीन कला का प्रतिनिधित्व करती है तथा यह चतुर्मुख प्रतिमा राजस्थान की भारतीय मूर्ति विज्ञान को अनुपम देन है।

7.     प्राचीन काल के शैव मूर्तिशिल्प में भी राजस्थान की अनुपम देन है। इस दृष्टि से भरतपुर क्षेत्र की विशेष भूमिका रही है।

8.     भरतपुर क्षेत्र के चौमा, भंडपुरा, गामड़ी आदि स्थानों से शुंग-कुषाणकालीन शिवलिंग मिले हैं।

9.     रंगमहल (हनुमानगढ़) से प्राप्त एकमुखी शिवलिंग की बहुचर्चित मृण्मूर्ति में शिवलिंग के मुख भाग में जटामुकुटधारी शिव को मानवाकृति प्रदान की गई हैं। यह मूर्ति वर्तमान में बीकानेर संग्रहालय में प्रदर्शित है।

10. बैराठ (जयपुर) प्राचीनकाल में राजस्थान में बौद्ध धर्म का सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। यहाँ से प्राप्त मौर्यकालीन बौद्ध अवशेषों से बौद्ध मंदिर, मठ आदि के होने के प्रमाण मिले हैं।

11.  भरतपुर क्षेत्र से अनेक रोचक कुषाणकालीन (प्रथम शताब्दी ई0 के आस-पास) बौद्ध मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। यहीं से कुछ बोधिसत्व मूर्तियाँ भी मिली हैं।

12.  बोधिसत्व महात्मा बुद्ध के जीवन की वह अवस्था है, जब वे बुद्धत्व प्राप्त करने के मार्ग में अग्रसर हो रहे थे।

13.  बुद्ध की प्रतिमा सदैव ही करूणा, प्रेम और सौहार्द की प्रतीक मानी गई हैं।

14.  भरतपुर संग्रहालय में भगवान बुद्ध का कपर्द रूप में मंडित केश वाला बुद्ध-शीर्ष भरतपुर संग्रहालय में उपलब्ध है, जो कुषाणकालीन कला का उल्लेखनीय उदाहरण है। (महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् केश तक मुंडित करा लिए और केवल बालों की एक लट सिर पर रहने दी, इस आशय की मूर्ति को कपर्द की संज्ञा मिली)

15.  राजस्थान में गुप्तकाल से पूर्व मूर्तिकला का विकास हो चुका था। परन्तु गुप्तकाल में लगभग सम्पूर्ण भारत में मूर्तिकला का जो विकसित रूप देखने को मिलता है, वैसा इससे पहले देखने को नहीं मिला है।

16.  गुप्तकाल की मूर्तियों में मौलिकता है। इस युग की देव मूर्तियाँ गान्धार कला से मुक्त हैं और उन पर आध्यात्मिक एवं अलौकिक भावों की अभिव्यक्ति है।

17.  गुप्तकाल की मूर्तियों की मुखाकृति सौम्य है, भाव-भंगिमा में जीवन्तता है, केश रचना में विविधता है तथा मूर्तियों के पीछे कलात्मक प्रभामण्डल दर्शाया गया है।

18.  देव परिवार का आशातीत रूप से विस्तार गुप्तयुग में देखने को मिलता है।

19.  यद्यपि राजस्थान सीधे रूप से गुप्त साम्राज्य का अंग नहीं था, परन्तु कला के क्षेत्र में हो रहे मौलिक परिवर्तनों तथा प्रयोगों का यहाँ प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

20.  राजस्थान में गुप्तकाल के युग के बचे हुए मन्दिरों में हाड़ौती क्षेत्र का मुकन्दरा तथा चारचौमा का शिव मन्दिर उल्लेखनीय है।

21.  इसके अतिरिक्त नगरी (चित्तौड़), गंगधार (झालावाड़), मंडोर (जोधपुर) में भव्य देवालय थे, जिनकी मूर्तियाँ गुप्तकाल के अतीत के वैभव को रेखांकित करती हैं।

22.  इटालियन विद्वान टेसीटोरी ने बीकानेर के इर्द-गिर्द गुप्तकालीन मृण्मूर्तियों की अमूल्य धरोहर की खोज की, वे प्रारम्भिक गुप्तकालीन मूर्तिकला की साक्ष्य हैं।

23.  वर्तमान में ये बीकानेर संग्रहालय की धरोहर हैं। ये मृण्मूर्तियाँ पौराणिक देवी-देवताओं के साथ ही, जनजीवन की अनेक झांकियाँ प्रस्तुत करती हैं।

24.  गुप्तकाल की शैव धर्म से सम्बन्धित राजस्थान की शैव मूर्तियाँ भी अत्यंत रोचक हैं।

25.  रंगमहल से प्राप्त गुप्तकाल की एकमुखी शिवलिंग तथा उमा-महेश्वर की मृण्मूर्तियाँ विशेषतः उल्लेखनीय हैं। लिंग के मुख भाग में त्रिनेत्र एवं जटामुकुटधारी शिव की आकृति प्रदर्शित कर कुशल शिल्पकार ने लिंग तथा पुरुष विग्रह का एक साथ ही सुन्दर समावेश किया है।

26.  प्रस्तर निर्मित अनेक महत्वपूर्ण गुप्तकालीन मूर्तियाँ राजस्थान से प्राप्त हुई हैं। ये सभी विष्णु की हैं तथा विशालकाय हैं।

27.  रूपावास (भरतपुर) की चक्रधर द्विभुजी विष्णु तथा सर्पफणा बलराम की विशालकाय प्रतिमाएँ गुप्तकाल की प्रस्तर निर्मित कला की श्रेष्ठताओं से युक्त है।

28.  इसके अतिरिक्त भीनमाल (जालौर), हेमावास (पाली) से प्राप्त गुप्तकालीन विष्णु प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं।

29.  राजस्थान में गुप्तकाल से पूर्व की जैन प्रतिमाएँ नहीं मिली हैं।

30.  गुप्तकाल की दृष्टि से भरतपुर संग्रहालय में प्रदर्शित तथा जमीना से प्राप्त तीर्थंकर आदिनाथ एवं नेमिनाथ की मूर्तियाँ विशेष महत्व की हैं। इन पर गुप्तकालीन कला परम्परा की स्पष्ट छाप है।

31.  गुप्तोत्तर एवं पूर्व मध्यकाल में राजस्थान की मूर्तिकला ने परिपक्वता प्राप्त कर ली थी। देवी-देवताओं आदि की मूर्तियों का आधार गुप्तकालीन माधुर्य तथा कोमलता तो बनी रहीं, परन्तु उनमें शक्ति, शौर्य और भावुकता का सम्पुट जोड़ा गया।

32.  गुप्तोत्तर एवं पूर्व मध्यकाल में देवी-देवताओं में विश्वास बढ़ने से उनका कई रूपों में अंकन किया गया। राजस्थान की इस युग की मूर्तियों में अलंकरण की प्रधानता, आकृतियों की बहुलता, देवरूपों की विविधता आदि देखने को मिलती हैं।

33.  गुप्तोत्तर काल में कूसमा (सिरोही) तथा झालरापाटन (झालावाड़) में चन्द्रभागा  नदी के तट पर शिव मन्दिर निर्मित हुए, जो आज भी विद्यमान है।

34.  चन्द्रभागा का शीतलेश्वर महादेव का मन्दिर राजस्थान का प्राचीनतम तिथियुक्त (689 ई.) मंदिर है।

35.  गुप्तोत्तर युग की मेवाड़ (उदयपुर) तथा वागड़ (डूंगरपुर-बाँसवाड़ा) में अनेक शिव मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। ये मूर्तियाँ प्रायः पत्थर की हैं। देव मूर्तियाँ अलंकृत प्रभामण्डल और चौकी सहित हैं। डूँगरपुर संग्रहालय में इनका समृद्ध संग्रह हैं।

36.  इस क्षेत्र के तनेसर से प्राप्त मूर्तियाँ राष्ट्रीय संग्रहालय (नई दिल्ली) तथा अमेरिका के संग्रहालयों तक में पहुँच चुकी हैं।

37.  पूर्व मध्यकाल (8वीं से 13वीं शताब्दी) में मूर्तिकला अपने विकास की क्रमिक यात्रा करते हुए चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुई। 

38.  पूर्व मध्यकाल में पूरे राजपूताना में मन्दिरों का जाल बिछा। राजपूताना में आज भी इस युग की कीर्ति का बखान करने वाले अनेक मन्दिर इसके प्रमाण हैं।

39.  पूर्व मध्यकाल की विरासत में मिली कला परम्पराओं ने आवश्यकतानुसार परिवर्तन एवं विकास ही नहीं किया, वरन् देवी-देवताओं के विभिन्न स्वरूपों की शास्त्रानुसार परिकल्पना कर उन्हें मूर्तियों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की।

40.  पूर्व मध्यकाल के मंदिर के बाह्य तथा आंतरिक सम्भाग देवमूर्तियों से ही नहीं, वरन् पौराणिक आख्यानों, सुर-सुन्दरियों, प्रणयलीन मूर्तियों तथा जन-जीवन की झांकी से परिपूर्ण हैं।

41.  कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पूर्व मध्यकाल की मूर्तियाँ पूर्ववर्ती प्रतिमाओं की अनुकृति मात्र नहीं हैं, वरन् अपने युग की धार्मिक चेतना एवं भाव-भूमि की वास्तविक प्रतिबिम्ब है।

42.  पूर्व मध्यकाल की धातु मूर्तियों ने मूर्तिकला को नये आयाम प्रदान कर कला का इतिहास रच दिया।

43.  मारवाड़ में ओसियां, बाड़मेर में किराडू,  नागौर में गोठ-मांगलोद, सीकर में हर्षनाथ, कोटा में कंसुआ, बांसवाड़ा में अर्थूणा, डूंगरपुर में देव सोमनाथ, झालवाड़ में झालरापाटन, आबू पर्वत में देलवाड़ा, पाली में केकीन्द, भीलवाड़ा में बिजौलिया एवं मेनाल आदि पूर्व मध्यकाल के ऐसे स्थल हैं, जहाँ के प्रसिद्ध मंदिरों में भव्य एवं कलात्मक ऐतिहासिक मूर्तियाँ हैं। ये मन्दिर मूर्तिकला की खान हैं।

44.  राजस्थान की मध्ययुगीन कला का प्रमुख स्वर धार्मिक समभाव तथा सौहार्द है। विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य समन्वय यहाँ की विशिष्टता है। मन्दिर और मूर्तिकला धार्मिक समभाव के साक्ष्य हैं।

45.  ओसियां में वैष्णव, शैव, देवी तथा जैन मन्दिर साथ-साथ होना धार्मिक समभाव का द्योतक हैं।

46.  वैष्णव तथा शैव सम्प्रदायों की उदारता तथा सहिष्णुता के परिणामस्वरूप विष्णु तथा शिव के संयुक्त रूप ‘हरिहर’ लोकप्रिय बने। शिव अपनी शक्ति से संपृक्त हो अर्द्धनारीश्वर बन गये।

47.  धार्मिक समभाव के कारण ही सूर्य तथा विष्णु का संयुक्त रूप सूर्यनारायण के रूप में अवतरित हुआ। 

48.  धार्मिक समभाव के फलस्वरूप ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश को समान धरातल पर कल्पित किया तथा उनमें कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं है।

49.  लोद्रवा (जैसलमेर), बाड़ौली (चित्तौड़), झालरापाटन (झालावाड़) तथा कटारा (भरतपुर) में त्रिदेवों का अंकन हुआ है। ये मध्यकालीन मूर्तिकला की अनुपम निधियाँ हैं।

50.  पूर्व मध्यकाल में गुर्जर-प्रतिहार शासक सभी धर्मों के प्रति उदार थे। स्वयं वैष्णव धर्मावलम्बी थे, किन्तु उन्होंने जैन धर्म को प्रश्रय दे रखा था। यही कारण रहा कि इस युग में जैन धर्म फला-फूला। अनेक सुन्दर जैन मन्दिरों का निर्माण तथा तीर्थंकरों की मूर्तियों का बहुतायत में मिलना इसका प्रमाण है।

51.  नाडोल (पाली), ओसियां (जोधपुर), देलवाड़ा (सिरोही), रणकपुर (पाली), झालरापाटन (झालावाड़), केशोरायपाटन (बूँदी), लाडनूं (नागौर), पल्लू (गंगानगर) आदि स्थलों में जैन देव-प्रतिमाएं स्थापित हैं।

52.  ओसियां के सच्चिया-माता मन्दिर के प्रांगण में स्थित प्रतिहारकालीन सूर्य-मंदिर में जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का अंकन धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है।

53.  देलवाड़ा के विमलवसही तथा लूणवसही मन्दिरों में कृष्णलीला का अंकन इसी धार्मिक सहिष्णुता भावना का सूचक है।

54.  इसी प्रकार हिन्दू प्रतिमाओं में सरस्वती का जो महत्व हैं, वही वाग्देवी सरस्वती का जैन सम्प्रदाय में है।

55.  पल्लू, लाडनूं, नाडोल तथा अर्थूणा की जैन सरस्वती प्रतिमाएँ राजस्थान की मध्यकालीन कला की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं।

56.  राजस्थान में 15 वीं शताब्दी से सांस्कृतिक पुनरुत्थान के युग की शुरुआत मानी जा सकती है।

57.  मेवाड़ में महाराणा कुम्भा का उदय सांस्कृतिक इतिहास की बड़ी घटना है।

58.  कुम्भा ने कुम्भलगढ़, चित्तौड़गढ़ और अचलगढ़ में कुम्भस्वामी नामक विष्णु मन्दिर बनवाए।

59.  कुम्भा द्वारा चित्तौड़गढ़ में निर्मित कीर्तिस्तम्भ (जिसे विजय स्तम्भ के रूप में अधिक जाना जाता है) को “भारतीय मूर्तिकला का शब्दकोष” कहा जाता है। इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा ने ठीक ही लिखा है, ”जीवन के व्यावहासिक पक्ष को व्यक्त करने वाला यह स्तम्भ लोकजीवन का रंगमंच हैं।

60.  16 वीं-17वीं शताब्दियों में राजपूत एवं मुगलों के मध्य जिस मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का श्रीगणेश हुआ, उसने मंदिर व उसकी मूर्तिकला को प्रभावित किया।

61.  अकबर के शासन काल में आमेर नरेश महाराजा मानसिंह ने वृंदावन (मथुरा) में गोविन्ददेव जी का मन्दिर बनवाया, जो मुगल साम्राज्य में बना सर्वोत्कृष्ट और भव्य देवालय है।

62.  आमेर नरेश महाराजा मानसिंह की रानी कंकावती ने अपने दिवंगत पुत्र जगतसिंह की पुण्य स्मृति में आमेर में जगतशिरोमणि का भव्य वैष्णव मन्दिर बनवाया।

63.  मानसिंह ने बंगाल से पालयुगीन शिलादेवी की मूर्ति लाकर आमेर में प्रतिष्ठित करवाई।

64.  उदयपुर में 17वीं शताब्दी का निर्मित जगदीश मन्दिर एक अन्य महत्वपूर्ण वैष्णव मन्दिर है।

65.  उदयपुर के जगदीश मन्दिर की मुख्य प्रतिमा भगवान जगदीश की काले पत्थर से निर्मित 5 फीट ऊँची प्रतिमा है, जिसके चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुप्रतिष्ठित है।

66.  उदयपुर के जगदीश मन्दिर के गर्भगृह के सामने गरूड़ की विशाल प्रतिमा है।

67.  लगभग इसी काल की वल्लभ सम्प्रदाय से सम्बन्धित मूर्तियाँ नाथद्वारा में श्रीनाथजी, कांकरोली में द्वारिकाधीश, कोटा में मथुरेश जी, जयपुर में गोविन्ददेव जी तथा बीकानेर में रत्नबिहारी की हैं। 

श्रीनाथजी, नाथद्वारा

68.  इस प्रकार राजस्थान में मूर्तिकला की एक समृद्ध परम्परा रही। राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बावजूद भी राजस्थान में मन्दिर निर्माण होता रहा और उनमें मूर्तियाँ स्थापित होती रही।

69.  मध्यकालीन मूर्तियों में जीवन्तता, सौन्दर्य, अलंकारिता, कलात्मकता, गतिशीलता एवं समन्वयवादिता के दिग्दर्शन होते हैं।

Comments

Popular posts from this blog

राजस्थान का प्रसिद्ध हुरडा सम्मेलन - 17 जुलाई 1734

हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋत...

राजपूताना मध्य भारत सभा -

राजपूताना मध्य भारत सभा - इस सभा का कार्यालय अजमेर में था। इसकी स्थापना 1918 ई. को दिल्ली कांग्रेस अधिवेशन के समय चाँदनी चौक के मारवाड़ी पुस्तकालय में की गई थी। यही इसका पहला अधिवेशन कहलाता है। इसका प्रथम अधिवेशन महामहोपाध्याय पंडित गिरधर शर्मा की अध्यक्षता में आयोजित किया गया था। इस संस्था का मुख्यालय कानपुर रखा गया, जो उत्तरी भारत में मारवाड़ी पूंजीपतियों और मजदूरों का सबसे बड़ा केन्द्र था।  देशी राज्यों की प्रजा का यह प्रथम राजनैतिक संगठन था। इसकी स्थापना में प्रमुख योगदान गणेश शंकर विद्यार्थी, विजयसिंह पथिक, जमनालाल बजाज, चांदकरण शारदा, गिरधर शर्मा, स्वामी नरसिंह देव सरस्वती आदि के प्रयत्नों का था।  राजपूताना मध्य भारत सभा का अध्यक्ष सेठ जमनालाल बजाज को तथा उपाध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी को बनाया गया। इस संस्था के माध्यम से जनता को जागीरदारी शोषण से मुक्ति दिलाने, रियासतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना करने तथा जनता में राजनैतिक जागृति लाने का प्रयास किया गया।  इस कार्य में संस्था के साप्ताहिक समाचार पत्र ''राजस्थान केसरी'' व सक्रिय कार्यकर्ताओं ...

THE SCHEDULED AREAS Villages of Udaipur district - अनुसूचित क्षेत्र में उदयपुर जिले के गाँव

अनुसूचित क्षेत्र में उदयपुर जिले के गाँव- अनुसूचित क्षेत्र में सम्मिलित उदयपुर जिले की 8 पूर्ण तहसीलें एवं तहसील गिर्वा के 252, तहसील वल्लभनगर के 22 व तहसील मावली के 4 गांव सम्मिलित किए गए हैं। ये निम्नानुसार है- 1. उदयपुर जिले की 8 पूर्ण तहसीलें (कोटड़ा, झाडोल, सराड़ा, लसाड़िया, सलूम्बर, खेरवाड़ा, ऋषभदेव, गोगुन्दा) - 2. गिर्वा तहसील (आंशिक) के 252 गाँव - S. No. GP Name Village Name Village Code Total Population Total Population ST % of S.T. Pop to Total Pop 1 AMBERI AMBERI 106411 3394 1839 54.18 2 AMBERI BHEELON KA BEDLA 106413 589 573 97.28 3 AMBERI OTON KA GURHA 106426 269 36 13.38 4 AMBERI PRATAPPURA 106427 922 565 61.28 5 CHEERWA CHEERWA 106408 1271 0 0.00 6 CHEERWA KARELON KA GURHA 106410 568 402 70.77 7 CHEERWA MOHANPURA 106407 335 313 93.43 8 CHEERWA SARE 106406 2352 1513 64.33 9 CHEERWA SHIVPURI 106409 640 596 93.13 10 DHAR BADANGA 106519 1243 1243 100.00 11 DHAR BANADIYA 106...