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राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र - सुषिर लोक वाद्य

सुषिर वाद्य वे होते हैं जिन्हें फूँक या वायु द्वारा बजाया जाता है।

1. अलगोजा-

यह प्रसिद्ध फूँक वाद्य बाँसुरी की तरह का होता है। वादक दो अलगोजे मुँह में रख कर एक साथ बजाता है। एक अलगोजे पर स्वर कायम किया जाता है तथा दूसरे पर बजाया जाता है। धोधे खाँ प्रसिद्ध अलगोजा वादक हुए है जिनके अलगोजा वादन है 1982 के दिल्ली एशियाड का शुभारंभ हुआ था। उन्होंने प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के विवाह में भी अलगोजा बजाया था। यह वाद्य केर व बाँस की लकड़ी से बनाया जाता है तथा इसे राणका फकीरों का वाद्य कहा जाता है।
अलगोजे का वादन यहाँ सुने....

2. शहनाई-

यह एक मांगलिक वाद्य है। इसे विवाहोत्सव पर नगाड़े के साथ बजाया जाता है। चिलम की आकृति का यह वाद्य शीशम या सागवान की लकड़ी से निर्मित किया जाता है। इसके ऊपरी सिरे पर ताड़ के पत्ते की तूती लगाई जाती है। फूँक देने पर इसमें से मधुर स्वर निकलते हैं।

3. पूंगी या बीन-

यह सुशिर वाद्य विशेष प्रकार के तूंबे से बनाया जाता है जिसका ऊपरी हिस्सा लंबा व पतला तथा निचला हिस्सा गोल होता है। तूंबे के निचले गोल भाग में छेद कर दो नलियां लगाई जाती है जिनमें छेद होते हैं। अलगोजे के समान ही इसकी एक नली में स्वर कायम किया जाता है तथा दूसरे से स्वर निकाले जाते हैं। यह एक प्रकार से बीन है। यह कालबेलियों (सपेरा जाति) का प्रमुख वाद्य है।

4. बाँकिया-

पीतल का बना यह सुषिर वाद्य ढोल के साथ मांगलिक अवसरों पर बजाया जाता है। यह एक बड़े बिगुल की तरह होता है। शादी-ब्याह में बाँकिया वादक बारात के आगे ढोल के साथ चलता है और रह रह कर इसे बजाता है।

5. भूंगल-

यह सुषिर वाद्य भवाई जाति का प्रमुख वाद्य है। बाँकिये से मिलता जुलता यह वाद्य भी पीतल का बना होता है। यह लगभग तीन हाथ लंबा होता है। इसे 'भेरी' भी कहते हैं। इसे रणक्षेत्र में भी बजाया जाता है उसी को रणभेरी बजाना कहते हैं।

6. मशक-

यह चमड़े की सिलाई कर के बनाया जाता है जिसके एक सिरे पर लगी नली से फूँक मारी जाती है तथा दूसरे सिरे पर लगी अलगोजेनुमा नली से स्वर निकाले जाते हैं। इसके स्वर पूँगी की तरह सुनाई देते हैं। भेरुजी के भोपो का यह प्रमुख वाद्य है।

7. बाँकली-

बांकली भी पीतल का बना हुआ एक सुषिर वाद्य है। यह सरगड़ों का खानदानी वाद्य है।

8. तुरही-

यह पीतल का बना होता है व इसे भी फूँक से बजाया जाता है। यह आठ-दस फुट लंबा वाद्ययंत्र है , जिसका मुंह छोटा व आकृति नोकदार होती है। होंठ लगाकर फूंकने पर तीखी ध्वनि निकलती है। प्राचीन काल में दुर्ग एवं युद्ध स्थलों में इसका वादन होता था।

9. करणा-

करणा 7-8 फीट लम्बा पीतल से बना बिगुलनुमा वाद्य यंत्र है। इसके पिछले भाग से होंठ लगाकर फूँक देने पर ध्वनि निकलती है। यह पुराने समय में युद्ध में विजय घोष करने के लिए प्रयुक्त होता था। कुछ मंदिरों में भी इसका वादन होता है। जोधपुर के मेहरानगढ़ के संग्रहालय में रखे करणा वाद्य को सबसे लंबा माना जाता है।


10. सतारा-

यह एक लंबी ऊर्ध्व बाँसुरी है जो लंगा द्वारा बजाई जाती है।  इसमें दो बांसुरियों को भी एक साथ फूंक द्वारा बजाया जाता है। एक बांसुरी केवल श्रुति के लिए तथा दूसरी को स्वरात्मक रचना के लिए काम में लिया जाता है। इसे ऊब सूख लकड़ी में छेद करके बनाया जाता है। दोनों बांसुरियों एक सी लंबाई होने पर पाबा जोड़ी, एक लंबी और एक छोटी होने पर डोढ़ा जोङा एवं अलगोजा नाम से भी जाना जाता है। यह पूर्ण संगीत वाद्य है तथा मुख्य रुप से चरवाहों द्वारा इसका वादन होता है। यह वाद्य मुख्यतया जोधपुर तथा बाड़मेर में बजाया जाता है।

11. मुरला

यह लंगा समुदाय द्वारा बजाया जाने वाला पूँगी की तरह का वाद्य है। इसमें भी दो नली होती है। इसे एक लम्बी  तूंबी में दो नालियों को  लगाकर बनाया जाता है । इस वाद्य यंत्र के तीन प्रकार  होते हैं: - आगौर, मानसुरी और टांकी। छोटी व पतली तूंबी पर निर्मित टांकी मुरला या मुरली कहलाती है।


12. पावरी-

यह कथौड़ी जनजाति द्वारा बजाई जाने वाली ऊर्ध्व बाँसुरी जैसा वाद्य है।

13. सुरणई-

सुरीली ध्वनि वाला यह वाद्य लंगा व माँगणियार की एक बाँसुरी है। यह वाद्य एक सिरे से पतला व आगे से फाबेदार (कीपनुमा) होता है। इसके अनेक रुप राजस्थान में  मिलते हैं। आदिवासी क्षेत्रों में लक्का व अन्य क्षेत्रों में नफीरी व टोटो भी होते हैं। इस पर खजूर या सरकंडे की पत्ती की रीढ़ लगाई जाती है।

14. तारपी-

यह तूंबे से बनाया जाने वाला फूँक वाद्य है जिसमें तूंबे को ऊर्ध्व रख कर इसके मध्य के भाग में किए गए छेद में फूँक दी जाती है तथा निचले भाग में लगी नली के छेदों से सुर साधे जाते हैं। 

15. नड़-

यह भी पश्चिमी राजस्थान का एक बाँसुरी जैसा सुषिर वाद्य है। यह कैर व कगारे की लकड़ी से बनाया जाता है। इसमें चार छेद होते हैं तथा इसे मुँह के किनारे से बजाया जाता है। दस्यु करणा भील व माले खाँ प्रख्यात नड़ वादक थे।

16 .  नागफणी - 

यह  पीतल का बना सर्पाकार सुषिर वाद्य है । इस वाद्य के मुंह पर होठों द्वारा तेजी से फूँकने पर इसका वादन होता है। यह साधुओं का धार्मिक वाद्य है । 

17. मयंक - 

यह बकरे की संपूर्ण खाल से बना वाद्य है, जिसमें दो प्रकार के छेद होते हैं। एक छेद पर एक नली लगी रहती है, वादक उसे मुंह में लेकर आवश्यकतानुसार हवा भरता है। दूसरे भाग पर दस-बारह अंगुल लंबी लकड़ी की चपटी नली होती है। नली के ऊपरी भाग पर छः तथा नीचे एक छेद होता है। बगल में लेकर धीरे-धीरे दबाने से इसका वादन होता है। जोगी जाति के लोग इस पर भजन व कथा गाते हैं।

18. सिंगा - 

यह सींग के आकार का पीतल की चद्दर से बना वाद्ययंत्र है। इसके पिछले भाग में होंठ लगाकर फूँक देने पर बजता है। वस्तुतः यह सींग की अनुक्रम पर बना वाद्य है, जिसका वादन जोगी व साधुओं द्वारा किया जाता है। 

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राजस्थान के लोक वाद्य 

राजस्थान के घन लोक वाद्य 

राजस्थान के अवनद्ध लोकवाद्य 

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