Skip to main content

राजस्थान के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल






1. रामदेवरा (जैसलमेर)-

देश में ऐसे देवता कम ही हैं जिनके दर पर हिन्दू-मुसलमान दोनों ही श्रद्धा और आस्था से सिर नवाते हैं। ऐसे ही एक लोक देवता है परमाणु विस्फोट के लिए प्रसिद्ध जैसलमेर के पोकरण से 13 किमी दूर स्थित रुणीजा अर्थात रामदेवरा के बाबा रामदेव। हिन्दू-मुस्लिम एकता व पिछडे वर्ग के उत्थान के लिए कार्य करने वाले प्रसिद्ध संत बाबा रामदेव की श्रद्धा में डूबे लाखों भक्त प्रतिवर्ष दर्शनार्थ आते है। हिन्दू मुस्लिम दोनों की आस्था के केन्द्र रामदेव के मंदिर में लोक देवता रामदेवजी की मूर्ति भी है और रामसा पीर की समाधि (मजार) भी। मान्यता है कि यहाँ के पवित्र राम सरोवर में स्नान से अनेक चर्मरोगों से मुक्ति मिलती है। चमत्कारी रामसा पीर के श्रद्धालु केवल आसपास के इलाकों से ही नहीं वरन् गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से भी सैंकडों किलोमीटर पैदल चल कर आते हैं। यहाँ प्रतिवर्ष भादवा शुक्ल द्वितीया से भादवा शुक्ल एकादशी तक विशाल मेला लगता है। बाबा रामदेव का जन्म विक्रम संवत 1409 की भादवा शुक्ल पंचमी को तोमर वंशीय अजमल जी और माता मैणादे के यहाँ हुआ था। माना जाता है कि ये भगवान श्रीकृष्ण का अवतार थे। रामदेव अपने जीवन काल में ही अपने चमत्कारों से लोगों की आस्था का केन्द्र हो गये। भैरव राक्षस के आतंक से लोगों को मुक्त कराना, बोयता महाजन के डूबते जहाज को बचाना, सगुनाबाई के बच्चों को जीवित करना, अंधों को दृष्टि प्रदान करना और कोढियों को रोगमुक्त करना उनके चमत्कारों में से कुछ थे ।


2. केला देवी (करौली)-

करौली से 23 किमी दूर स्थित इस स्थान पर जादौन राजपूत (यादव या यदुवंश) की कुलदेवी केलादेवी का भव्य मंदिर है। त्रिकुट पहाड़ियों के मध्य यह स्थान बनास की सहायक कालीसिल नदी के किनारे स्थित है। संगमरमर से बने मुख्य मंदिर में केलादेवी और चामुण्डा देवी की प्रतिमाएं स्थापित है। केलादेवी को महालक्ष्मी का रूप भी माना जाता है । नवरात्रि के दौरान प्रतिवर्ष यहाँ लाखों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं । चैत्र कृष्ण द्वादशी से प्रारंभ हो कर एक पखवाड़े तक चलने वाले केलादेवी मेले में लाखों दर्शनार्थियों के आने के कारण इसे लक्खी मेला कहा जाता है । राजपूतोँ के अतिरिक्त मीणा भी इसके प्रमुख भक्त माने जाते हैं । यहाँ एक भैरव मंदिर एवं हनुमान (लांगुरिया) मंदिर भी बने हुए हैं । इस मेले में करोली के ख्यातिनाम लांगुरिया लोकगीत भी गाए जाते हैं । केलादेवी को शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ भी माना जाता है।


3. दरगाह अजमेर शरीफ-

इसका भारत में ही नहीं वरन विदेशों में भी बड़ा महत्व है। यह प्रसिद्ध सूफी संत ख्वाज़ा मोइनुद्धीन चिश्ती की दरगाह है। ख्वाज़ा मोइनुद्धीन चिश्ती एक ऐसे संत थे जिन्होंने धर्म का ध्यान रखे बिना प्रत्येक धर्म के गरीबों की सेवा के लिए कार्य किया और 'गरीब नवाज' कहलाए। इसी कारण यह तीर्थ अजमेर आने वाले केवल मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि सभी धर्मावलम्बियों के लिये एक पवित्र स्थान है। सभी मुस्लिम तीर्थ स्थलों में मक्का के बाद इसका दूसरा स्थान हैं। इसलिये इसे भारत का मक्का भी कहा जाता हैं। इसका निर्माण 13वीं शताब्दी का माना जाता हैं। यहाँ आने वाले जायरीन चाहे वे किसी भी मजहब के क्यों न हों, ख्वाज़ा के पर दस्तक देने अवश्य आते हैं। यह दरगाह अजमेर स्टेशन से 2 किमी. दूर स्थित है। दरगाह में अंदर सफेद संगमरमरी शाहजहांनी मस्जिद,बारीक कारीगरी युक्त बेगमी दालान, जन्नती दरवाजा, बुलंद दरवाज़ा एवं दो मुगलकालीन देगेँ हैं। इन देगों में काजू, बादाम, पिस्ता इत्यादि सूखे मेवो तथा इलायची, केसर युक्त चावल पकाया जाता है और गरीबों में बाँटा जाता है। ख्वाज़ा की पुण्यतिथि पर प्रतिवर्ष रज्जब के पहले दिन से छठे दिन तक यहाँ उर्स का आयोजन किया जाता है, जिसमें लाखों जायरीन देश-विदेश से आकर जियारत करते हैं।


4. श्रीचारभुजानाथ (गढ़बोर, राजसमन्द)-



राजसमन्द जिला मुख्यालय से 38 किमी दूर अरावली पर्वत श्रंखला के मध्य गढ़बोर गाँव मेँ स्थित 'चारभुजानाथ धाम' भगवान विष्णु का एक प्रसिद्ध मंदिर है। इसके समीप ही प्रसिद्ध दुर्ग कुंभलगढ़ है। पास ही गोमती नदी प्रवाहित होती है। इस मंदिर में स्थित शिलालेख के अनुसार इसका निर्माण 1444 AD में के गंगदेव द्वारा कराया गया। इस गाँव का नाम पूर्व में बद्री था इसी कारण इस प्रतिमा को बद्रीनाथ भी माना जाता है। श्रीचारभुजानाथ की काले पत्थर की प्रतिमा 85 सेमी ऊँची है। इसके चार हाथ है, इनमें शंख, चक्र, गदा और कमल का पुष्प है । इस मंदिर के पुजारी गुर्जर हैं लेकिन सभी जातियों द्वारा इनकी अर्चना की जाती है। यह मंदिर संगमरमर और चूने की घुटाई से बना है तथा इसमें काँच की सुंदर कारागरी की गई है । यहाँ निज मंदिर के दरवाजे सोने के है जबकि बाहर के दरवाजे चाँदी के हैं। यहाँ परिसर में भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ की प्रतिमा भी स्थापित है। प्रवेश द्वार पर पत्थर के दो हाथी भी बने हैं। लाखों तीर्थ यात्री इस मंदिर की यात्रा करते हैं । जनश्रुति है कि यहाँ पाण्डवों ने अपना निर्वासन काल बिताया था। यहाँ प्रतिवर्ष जलझूलनी एकादशी (भाद्रपद शुक्ल एकादशी) को एक विशाल मेला भरता है जिसमें हजारों श्रद्धालु आते हैं। इस मेले में चारभुजानाथ की विशाल रामरेवाड़ी यात्रा निकलती है जिसकी बहुत बड़ी शोभायात्रा होती है। इस मेले हेतु भक्त मध्यप्रदेश, मेवाड़ और मारवाड से सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्रा करके भी पहुँचते हैं।

5 त्रिपुरा सुंदरी माता, बाँसवाड़ा

राजस्थान में बाँसवाड़ा से लगभग 14 किमी दूर तलवाड़ा गाँव से मात्र 5 किमी की दूरी पर उमराई के छोटे से ग्राम में माता त्रिपुर सुंदरी प्रतिष्ठित है। यह मंदिर तीसरी सदी से भी प्राचीन माना जाता है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार तीसरी शती के आस-पास पांचाल जाति के चांदा भाई लुहार ने करवाया था। मंदिर के समीप ही भागी (फटी) खदान है, जहाँ किसी समय लौह उत्खनन की खदान हुआ करती थी। यह मंदिर भारत के 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। देवी त्रिपुरा के गर्भगृह में सिंहवाहिनी देवी की विविध आयुध से युक्त अठारह भुजाओं वाली काले रंग की तेजयुक्त आकर्षक मूर्ति है। पास ही नौ-दस छोटी मूर्तियां है जिन्हें दस महाविद्या अथवा नव दुर्गा कहा जाता है। मूर्ति के नीचे के भाग के संगमरमर के काले व चमकीले पत्थर पर श्रीयंत्र उत्कीर्ण है, जिसका भी अपना विशेष महत्व है। गुजरात, मालवा और मेवाड़ के राजा त्रिपुरा सुन्दरी के उपासक थे। गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह की यह इष्ट देवी रही है। यहाँ दोनों ही नवरात्रियों में विशाल मेला सकता है।


6 सकराय या शाकम्भरी माता, झुंझनूँ

सुरम्य घाटियों के बीच बना यह आस्था केन्द्र झुंझनूँ जिले के उदयपुरवाटी के समीप है। यहाँ के आम्रकुंज, स्वच्छ जल का झरना आने वाले व्यक्ति का मन मोहित करते हैं। इस शक्तिपीठ पर आरंभ से ही नाथ संप्रदाय वर्चस्व रहा है जो आज तक भी है। यहाँ देवी शंकरा, गणपति तथा धन स्वामी कुबेर की प्राचीन प्रतिमाएँ स्थापित हैं। यह मंदिर खंडेलवाल वैश्यों की कुल देवी के मंदिर के रूप में विख्यात है। इसमें लगे शिलालेख के अनुसार मंदिर के मंडप आदि बनाने में धूसर और धर्कट के खंडेलवाल वैश्यों सामूहिक रूप से धन इकट्ठा किया था। विक्रम संवत 749 के एक शिलालेख प्रथम छंद में गणपति, द्वितीय छंद में नृत्यरत चंद्रिका एवं तृतीय छंद में धनदाता कुबेर की भावपूर्ण स्तुति लिखी गई है।


7 शिलादेवी, आमेर (जयपुर)

जयपुर के राजाओं की कुलदेवी शिलादेवी का यह मंदिर आमेर के महल में स्थित है। यह प्रतिमा अष्टभुजी महिषासुरमर्दिनी की है। मूर्ति के ऊपरी हिस्से में पंचदेवों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण है। मंदिर के दरवाजे चाँदी के हैं जिन पर दस विद्याओं की प्रतिमाएँ बनी है। इस देवी को अकबर के सेनापति एवं आमेर के राजा मानसिंह प्रथम ने बंगाल विजय के पश्चात 16 वीं सदी के अंत में यहाँ लाकर प्रतिष्ठित किया था। एक मत के अनुसार वे बंगाल के यशोहर के शासक प्रतापादित्य को पराजित कर यह मूर्ति लाए थे जबकि एक अन्य मत के अनुसार विक्रमपुर के शासक केदारराय को पराजित कर लाए थे। उन्होंने केदारराय की पुत्री से विवाह भी किया था। यहाँ प्रतिवर्ष नवरात्रि में विशाल मेले लगते हैं।


8 आई माता, बिलाड़ा (जोधपुर)



आईमाता नवदुर्गा देवी का अवतार कही जाती है। इनकी कथा है कि आईमाता मालवा के बीका जबी की पुत्री थी। उनके रूप की चर्चा सुनकर मांडू का बादशाह उनसे विवाह करने के लिए आया। बीका ने तो उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया किन्तु विवाह मंडप में आईजी ने उग्र व प्रचंड रूप दिखा कर उसे भगा दिया। इसके बाद आईमाता लोक कल्याण व साधना में लग गई। ये मुल्तान और सिन्ध की ओर से आबू व गोड़वाड़ प्रांत में होती हुई विक्रम संवत 1521 में बिलाड़ा आई थी और चैत्र सुदी 2 संवत 1561 में यहीं स्वर्ग सिधारी। यहाँ इनके अधिकतर भक्त सीरवी जाति के लोग हैं जो राजपूतों से निकली एक कृषक जाति है। 13 वीं सदी में अल्लाउद्दीन खिलजी के आक्रमण से त्रस्त होकर ये जालोर राज्य को छोड़ कर बिलाडा आ गए। बाद में आईमाता ने इन्हें अपने पंथ में मिला लिया। आईमाता के मंदिर में कोई मूर्ति नहीं होती है। इसके थान को बडेर कहते हैं। सिरवी लोग आईमाता के मंदिर को दरगाह कहते हैं। बहुत से लोग आईमाता को बाबा रामदेवजी 'रामसा पीर' का शिष्या मानते हैं। यह भी कहा जाता है कि राणा कुंभा का पुत्र राजमल भी इनका भक्त था और देश निकाले के बाद इनके पास आया था।


9 आवड़ माता, जैसलमेर

यह मंदिर जैसलमेर से 25 किमी दक्षिण में बना हुआ है। चारणों द्वारा पूज्य इस देवी को हिंगलाज माता (पाकिस्तान) का अवतार माना जाता है। इसी कारण इस स्थान को दूसरा हिंगलाज के नाम से जाना जाता है। लोकदेवी आवड़ माता का जैसलमेर आगमन विक्रम संवत 888 के आसपास माना जाता है। कहा जाता है कि ये सात बहने-आवड, गुलो, हुली, रेप्यली, आछो, चंचिक, और लध्वी थी और सातों ही देवी बन गई। इनके पिता मामड़ साउवा शाखा के चारण थे। जैसलमेर जिले में तेमड़ा पर्वत पर आवड़ माता का स्थान बना है जिसके कारण आवड़ माता को तेमड़ाताई भी कहते हैं। यह कहा जाता है कि इस पर्वत पर तेमड़ा नामक विशालकाय हुण जाति का असुर था। जिसे माता ने उक्त पर्वत की गुफा में गाढ दिया था। तत्कालीन शासक देवराज ने इस पर्वत पर मन्दिर बनाया। चारण देवियों के संबंध में मान्यता है कि वे 'नौ लख लोवड़ियाल' अर्थात नौ लाख तार की ऊनी साड़ी पहनती थी। इन देवियों के स्तुति पाठ को 'चरजा' कहते हैं। ये दो प्रकार की होती हैं- सिगाऊ व घाड़ाऊ। 'सिगाऊ' शांति के समय पढ़ी जाती है। 'घाड़ाऊ' को भक्त विपत्ति के समय पढ़ता है।


10 शीतलामाता, चाकसू जयपुर

यह चेचक की निवारक माता है। यह मंदिर चाकसू में शीतली डूंगरी पर सवाई माधोसिंह ने बनवाया था। यहाँ शीतलाष्टमी को लक्खी मेला लगता है। गधा इस देवी का वाहन तथा कुम्हार इसके पुजारी माने जाते हैं। यह एकमात्र ऐसी देवी है जो खंडित रूप में पूजी जाती है। इसकी मूर्ति फफोलेदार व खंडित होती है।


11. तीर्थराज पुष्कर -



यह अजमेर से 11 किमी दूर है। पुष्कर ब्रह्माजी के मंदिर के लिए विश्व प्रसिद्ध है। बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम आदि तीर्थोँ के बाद पुष्कर में भी स्नान करना आवश्यक माना है । कहा जाता है कि विश्वामित्र ने यहाँ पर तपस्या की थी व भगवान राम ने यहाँ गया कुंड पर पिता दशरथ का पिण्ड तर्पण किया था। पांडवो ने भी अपने निर्वासित काल का कुछ समय पुष्कर में बिताया था। पुष्कर को गायत्री का जन्मस्थल भी माना जाता है। यहाँ प्रतिदिन तीर्थयात्री आते हैं लेकिन प्रसिद्ध पुष्कर मेले में हजारों देशी-विदेशी तीर्थयात्री आते हैं। यह मेला कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक चलता है।


12. कपिलमुनि का कोलायत -



सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल की तपोभूमि कोलायत बीकानेर से लगभग 50 किमी दूर है। कार्तिक माह (विशेषकर पूर्णिमा) में यहाँ झील में स्नान का विशेष महत्व है।


13. भर्तृहरि -



अलवर से 35 किमी दूर है यह नाथपंथ की अलख जगाने वाले राजा से संत बने भर्तृहरि का समाधि स्थल। यहाँ भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को मेला लगता है । कनफडे नाथ साधुओं के लिए इस तीर्थ की विशेष मान्यता है।


14. रामद्वारा, शाहपुरा (भीलवाड़ा) -



यह भीलवाडा करीब 50 किमी दूर है व सडक मार्ग द्वारा जिला मुख्यालय से जुडा हुआ हैं। यह रामस्नेही सम्प्रदाय के श्रद्धालुओं का प्रमुख तीर्थ स्थल हैं। इस संप्रदाय का मुख्य मंदिर रामद्वारा के नाम से जाना जाता हैं। यहॉ पूरे भारत से और विदेशों तक से तीर्थयात्री आते हैं। यह शहर लोक देवताओं की फड पेंटिंग्स के लिए भी प्रसिद्ध है। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी वीर बाँकुरे केसरसिंह बारहठ की हवेली एक स्मारक के रूप में यहाँ विद्यमान हैं। यहॉ होली के दूसरे दिन प्रसिद्ध फूलडोल मेला लगता हैं, जो लोगों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र होता हैं। यहॉं के ढाई इंची गुलाब जामुन मिठाई बहुत प्रसिद्ध है।


15. खाटूश्यामजी -



जयपुर से करीब 80 किमी दूर सीकर जिले मेँ स्थित खाटूश्यामजी का बहुत ही प्राचीन मंदिर स्थित है। यहाँ भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की पूजा श्याम के रूप में की जाती है। ऐसी मान्यता है कि महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को वरदान दिया था कि कलयुग में उसकी पूजा श्याम (कृष्ण स्वरूप) के नाम से होगी। खाटू में श्याम के मस्तक स्वरूप की पूजा होती है, जबकि निकट ही स्थित रींगस में धड़ स्वरूप की पूजा की जाती है। प्रतिवर्ष यहाँ फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष में नवमी से द्वादशी तक विशाल मेला भरता है, जिसमें देश-विदेश से लाखों भक्तगण पहुँचते हैं। हजारों लोग यहाँ पदयात्रा करके भी पहुँचते हैं, वहीं कई लोग दंडवत करते हुए श्याम के दरबार में अर्चना करने आते हैं। प्रत्येक एकादशी व रविवार को भी यहाँ भक्तों की लंबी कतारें लगी रहती हैं।


16. हनुमानगढ़ का सिल्ला माता मंदिर-



सिल्ला माता का मंदिर 18 वीं शताब्दी में स्थापित है। यह कहा जाता है कि मंदिर में स्थापित माता जी सिल्ल पत्थर घग्घर नदी में बहकर आया था। यह मंदिर हनुमानगढ़ जिला मुख्यालय पर वैदिक नदी सरस्वती के प्राचीन बहाव क्षेत्र में स्थित है। इस मंदिर की मान्यता है कि सिल्ला माता के सिल पीर में जो कोई भी दूध व पानी चढ़ाता है, उसके त्वचा सम्बन्धी रोगों का निवारण हो जाता है। इस मंदिर में प्रत्येक गुरुवार को मेला लगता है।


17. सालासर बालाजी-



राजस्थान के चुरू जिले के सालासर में स्थित हनुमानजी का मंदिर है। यह बालाजी का मंदिर बीकानेर सड़क मार्ग पर जयपुर से 130 किमी व सीकर से 57 किमी की दूरी पर है। यहाँ हर दिन हजारों की संख्या में देशी-विदेशी भक्त मत्था टेकने आते हैं। इस मंदिर में हनुमानजी की वयस्क मूर्ति स्थापित है अतः भक्तगण इसे बड़े हनुमानजी भी पुकारते हैं। चैत्र पूर्णिमा व आश्विन पूर्णिमा के दिन सालासर में विशाल मेला लगता है।


18. चौहानों की कुल देवी जीणमाता-



जीणमाता का मंदिर सीकर से 29 किमी दक्षिण में अरावली की पहाड़ियों के मध्य स्थित है। इसमें लगे शिलालेखों में सबसे प्राचीन विक्रम संवत 1029 (972 A.D.) का शिलालेख है। इससे पता चलता है कि यह मंदिर इससे भी प्राचीन है। जीण माता चौहानों की कुल देवी है। इस मंदिर में जीणमाता की अष्टभुजी प्रतिमा है। यहाँ चैत्र व आसोज के नवरात्रि में शुक्ल पक्ष की एकम से नवमी तक लक्खी मेला भरता है। राजस्थानी लोक साहित्य में जीणमाता का गीत सबसे लम्बा माना जाता है। इस गीत को कनफ़टे जोगी केसरिया कपड़े पहन कर, माथे पर सिन्दूर लगाकर, डमरू व सारंगी पर गाते हैं। इस मंदिर के पश्चिम में महात्मा का तप स्थान है जो धूणा के नाम से प्रसिद्ध है। जीण माता मंदिर के पहाड़ की श्रंखला में ही रेवासा पीठ व प्रसिद्ध हर्षनाथ पर्वत है।


19. मेवाड़ अधिपति एकलिंग महादेव-



उदयपुर से 25 किमी उत्तर में महादेव शिवजी का एक प्राचीन व अत्यंत प्रसिद्ध मंदिर है जिसे एकलिंग जी का मंदिर कहते है। यह अरावली की पहाड़ियों के मध्य स्थित है। इस गाँव का नाम कैलाशपुरी है। एकलिंग जी मेवाड़ के महाराणा के इष्टदेव हैं। महाराणा "मेवाड़-राज्य" के मालिक के रुप में एकलिंग जी को ही मानते हैं तथा वे स्वयं को उनका दीवान ही कहते हैं । इसके निर्माण के काल के बारे में तो ऐसा कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है लेकिन एक जनश्रुति के अनुसार सर्वप्रथम इसे गुहिल वंश के बापा रावल ने बनवाया था। फिर महाराणा मोकल ने उसका जीर्णोद्धार कराया। महाराणा रायमल ने नये सिरे से वर्तमान मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर के अहाते में कई और भी छोटे बड़े मंदिर बने हुए हैं, जिनमें से एक महाराणा कुम्भा का बनवाया हुआ विष्णु का मंदिर है। लोग इसे मीराबाई का मंदिर के रुप में भी जानते हैं।


20. श्रीनाथद्वारा-

उदयपुर से लगभग 45 किमी दूर पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय की प्रधान पीठ यहाँ स्थित है। यहाँ श्रीनाथजी का विशाल मंदिर है जिसमें अन्य मंदिरों की तरह वास्तुकला दिखाई नहीं देती। भगवान श्रीनाथजी को कृष्ण का बाल रूप माना गया है, इसी बाल रूप की लीलाओं की झाँकी हमें इस मंदिर और इसमें होने वाले दर्शनों में मिलती है। पुष्टिमार्ग में इस मंदिर को मंदिर न मान कर हवेली की संज्ञा दी गई है। हवेली का तात्पर्य है भवन। वस्तुत: इसे नंदबाबा के भवन का प्रतीक माना गया है। मंदिर में श्रीकृष्ण की काले पत्थर की अत्यंत मनोहारी आदमकद मूर्ति है, जिसका प्रतिदिन आकर्षक श्रंगार किया जाता है। पुष्टिमार्ग की परंपरा के अनुसार इस मंदिर में प्रतिदिन आठ दर्शन होते हैं, ये दर्शन मंगला, ग्वाल, श्रृंगार, राजभोग, उत्थापन, भोग, आरती और शयन के होते है।

यहाँ जन्माष्टमी, डोल, स्नान जात्रा (यात्रा), छप्पन भोग और दीपावली (खेखरा, गोवर्धन पूजा और अन्नकूट उत्सव) आदि उत्सव विशेष उत्साह के साथ मनाए जाते हैं जिनमें से दीपावली एवं जन्माष्टमी के उत्सवों में भारी भीड़ का मेला लगता है। दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के पश्चात 'खेंखरा' का आयोजन किया जाता है जिसमें श्रीनाथजी की गौशाला के ग्वाल गायों को क्रीडा करवाते हैं।  इसी दिन रात्रि को लगभग 11-12 बजे अन्नकूट के दर्शनों के पश्चात् आस-पास के आदिवासी 'अन्नकूट लूटने' की सदियों पुरानी परंपरा का निर्वहन करते हैं। इस परंपरा में आदिवासी अन्नकूट के प्रसाद को लूट कर अपने घर ले जाते हैं।

दर्शनों के समय यहाँ परंपरागत हवेली संगीत से ओतप्रोत अष्टछाप कवियों द्वारा रचित भक्तिपद भी गाए जाते है। गोस्वामी विट्ठलनाथजी ने वि.सं.1602 के लगभग अपने पिता वल्लभाचार्यजी के 84 शिष्यों में से चार कुम्भनदास, सूरदासपरमानन्द दास व कृष्णदास और अपने स्वयं के 252 शिष्यों में से चार श्री गोविंदस्वामी, नन्ददास, छीतस्वामी एवं चतुर्भुज दास को लेकर कुल 8 प्रसिद्ध भक्त कवियों की मंडली 'अष्टछाप" की स्थापना की। आज भी इनके लिखे पद श्रीनाथजी के मंदिर में अवसरानुसार प्रतिदिन कीर्तनकारों विभिन्न रागों में द्वारा गाये जाते है, इसे हवेली संगीत कहते हैं।

21. वेणेश्वर धाम-

सोम, माही और जाखम नदियों के संगम पर डूंगरपुर जिले में स्थित यह तीर्थ माघ शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक चलने वाले आदिवासियों के सबसे बड़े मेले जिसे आदिवासियों का महाकुंभ भी कहा जाता है, के लिए विश्वप्रसिद्ध है। यहाँ बड़ी संख्या में आदिवासी एकत्रित होकर संगम में स्नान करते हैं और शिव के प्राचीन मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं। यह ब्रह्मा, विष्णु व शिव मंदिरों के अलावा राजा बलि की यज्ञस्थली भी है।

22. करणीमाता, (देशनोक, बीकानेर)-

बीकानेर से 30 किमी दूर देशनोक के करणीमाता का मंदिर में हजारों चूहे निडर हो कर घूमते रहते हैं। यहाँ चूहो की पूजा की जाती है और उन्हें दूध, अनाज एवं मिठाई चढ़ाई जाती है । आरती के समय इतनी अधिक संख्या में चूहे हो जाते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को पैर घसीटते हुए चलना पड़ता है ताकि पैर के नीचे चूहे कुचले नहीं। मान्यता है कि पैर नीचे कुचल कर कोई चूहा मर जाए तो उसके बदले चाँदी का चूहा चढ़ाना पड़ता है। यहाँ सफेद चूहे जिसे काबा कहा जाता है, के दर्शन शुभ माने जाते है। प्रत्येक नवरात्रि के अवसर पर यहाँ विशाल मेला लगता है जिसमें हजारों भक्त देवी की पूजा अर्चना के लिए आते हैं।

23. गोगामेड़ी (हनुमानगढ़)-

हरियाणा की सीमा पर स्थित राज्य के हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील में यह धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल स्थित है। गोगादेव गुरुभक्त, वीर योद्धा और प्रतापी राजा थे । वे नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ के शिष्य थे, जिनकी याद में यहाँ एक विशाल मेला भरता है। यहाँ भारी संख्या में श्रद्धालु मन में आस्था लिए पहुँचते हैं। दूरदराज से आने वाले श्रद्धालु यहाँ गोरक्ष गंगा तालाब में डुबकी लगाकर स्नान करते हैं। इसके बाद 2 किमी दूर गोगाणा गाँव मेँ स्थित गोरखनाथजी का प्राचीन धूणा में दर्शन कर गोगाजी के मंदिर पहुंच कर वहां दर्शन करते हैं। गोगामेड़ी हिंदुओं तथा मुसलमानों का सांझा धार्मिक स्थल है। जितनी श्रद्धा से यहां हिंदू पूजा करते हैं उतनी ही श्रद्धा से मुसलमान भी सजदा करते है। जाहरवीर गोगाजी को हिन्दू 'वीर' कहते हैं तो मुसलमान इन्हें "गोगा पीर" के नाम से पुकारते हैं। यहां पर स्थित गोरखगंगा का अपना विशेष ही महत्व है। गोगामेड़ी में यूं तो पूरे वर्ष श्रद्धालु आते रहते हैं लेकिन भादों मास में एक महीने के लिए यहां भारी मेला लगता है। परंतु भादवा शुक्लपक्ष की नवमी (गोगानवमी) पर जाहरवीर गोगा जी का जन्मदिन के अवसर का अत्यंत महत्व है।

24. सांवरिया सेठ, मंडफिया, चित्तौड़गढ़-

सांवरियाजी जी का मंदिर उदयपुर से 40 Km दूर चित्तौड़गढ़ जिले की भदेसर तहसील में स्थित है। भगवान कृष्ण का यह मंदिर चित्तौड़गढ़ उदयपुर राजमार्ग पर स्थित है। यहाँ देवझूलनी एकादशी पर भव्य मेला लगता है जिसमें मंदिर की ओर से रामरेवाड़ी रथ यात्रा निकाली जाती है तथा भगवान को सरोवर में झूलाया (नहलाया) जाता है। इस मेले में लाखों लोग भाग लेते हैं। सांवरियाजी को सांवलिया जी या सांवरिया सेठ या सांवरा सेठ भी कहा जाता है।

25. मातृकुंडिया तीर्थ-

यह चित्तौड़गढ़ जिले की राश्मी तहसील में बनास नदी के किनारे स्थित है। इस तीर्थ में स्नान की गंगाजी में स्नान के समकक्ष मान्यता है इस कारण इसे "मेवाड़ का हरिद्वार" भी कहा जाता है। कहा जाता है कि मातृहत्या के पाप से मुक्ति के लिए यहाँ महर्षि परशुराम ने भी स्नान किया था। यहां बनास पर एक बाँध भी बना है। यहाँ शिवजी का एक प्राचीन मंदिर भी  है।

26. आशापुरा देवी -

आशा पूर्ण करने वाली देवी को आशापुरी या आशापुरा देवी कहते हैं। जालोर के चौहान शासकों की कुलदेवी आशापुरी देवी थी जिसका मंदिर जालोर जिले के मोदरां माता अर्थात बड़े उदर वाली माता के नाम से विख्यात है। चौहानों के अतिरिक्त कई जातियों के लोग तथा जाटों में बुरड़क गोत्र इसे अपनी कुल देवी मानते हैं। आशापुरा देवी का मंदिर राजस्थान के पाली जिले के नाडोल नाम के गाँव मे भी स्थित है।

27. नारायणी माता , राजगढ़ अलवर -


सरिस्का के वन क्षेत्र के समीप जंगलों से घिरे भू भाग में टहला से आने वाले मार्ग पर बरवा की डूंगरी की टलहटी में स्थित नारायणी माता का मंदिर मेवात के प्रसिद्ध लोकतीर्थों में गिना जाता है। यह स्थान अलवर जिले की राजगढ़ तहसील में है। नाई जाति के लोग इसे अपनी कुलदेवी मानते हैं। लोक मान्यता के अनुसार संवत 1016 में नाई जाति की एक स्त्री करमेती विवाह के बाद अपने पति के साथ जा रही थी तभी रास्ते में उसके पति को साँप ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गई। वह वहीं सती हो गई। तब से यह जगह श्रद्धा स्थली हो गया। यह मंदिर 11 सदी का और प्रतिहार शैली में बना है। मीणा जाति के लोग इसके पुजारी होते हैं। इसकी पूजा को लेकर मीणा एवं नाई जाति के बीच विवाद भी हुआ था।

 

कुछ और भी है यहाँ -

ओसियां के मंदिर

पाप मुक्ति धाम है - कांठल का गौतमेश्वर

तीर्थों का भांजा है मचकुंड

राजस्थान का प्रसिद्ध शक्तिपीठ जालौर की "सुंधामाता"- (Sundha Mata) 

प्रसिद्ध शक्तिपीठ सुंधामाता

राजस्थान का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल 'लोहार्गल धाम'

श्री घुश्मेश्वर द्धादशवां ज्योतिर्लिंग शिवालय शिवाड़


Comments

  1. बहुत ही गहरा और सोचने को उकसाने वाला लेख! मैंने इसे पढ़कर एक नई दृष्टिकोण प्राप्त किया। अजमेर के पर्यटन स्थल

    ReplyDelete
  2. आपकी ज्ञानवर्धक जानकारी और व्याख्या बहुत प्रभावशाली है। मुझे यह सबसे अच्छा लगा। मेरा यह लेख भी पढ़ें खाटू श्याम मंदिर का इतिहास

    ReplyDelete

Post a Comment

Your comments are precious. Please give your suggestion for betterment of this blog. Thank you so much for visiting here and express feelings
आपकी टिप्पणियाँ बहुमूल्य हैं, कृपया अपने सुझाव अवश्य दें.. यहां पधारने तथा भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार

Popular posts from this blog

राजस्थान का प्रसिद्ध हुरडा सम्मेलन - 17 जुलाई 1734

हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋत...

राजपूताना मध्य भारत सभा -

राजपूताना मध्य भारत सभा - इस सभा का कार्यालय अजमेर में था। इसकी स्थापना 1918 ई. को दिल्ली कांग्रेस अधिवेशन के समय चाँदनी चौक के मारवाड़ी पुस्तकालय में की गई थी। यही इसका पहला अधिवेशन कहलाता है। इसका प्रथम अधिवेशन महामहोपाध्याय पंडित गिरधर शर्मा की अध्यक्षता में आयोजित किया गया था। इस संस्था का मुख्यालय कानपुर रखा गया, जो उत्तरी भारत में मारवाड़ी पूंजीपतियों और मजदूरों का सबसे बड़ा केन्द्र था।  देशी राज्यों की प्रजा का यह प्रथम राजनैतिक संगठन था। इसकी स्थापना में प्रमुख योगदान गणेश शंकर विद्यार्थी, विजयसिंह पथिक, जमनालाल बजाज, चांदकरण शारदा, गिरधर शर्मा, स्वामी नरसिंह देव सरस्वती आदि के प्रयत्नों का था।  राजपूताना मध्य भारत सभा का अध्यक्ष सेठ जमनालाल बजाज को तथा उपाध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी को बनाया गया। इस संस्था के माध्यम से जनता को जागीरदारी शोषण से मुक्ति दिलाने, रियासतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना करने तथा जनता में राजनैतिक जागृति लाने का प्रयास किया गया।  इस कार्य में संस्था के साप्ताहिक समाचार पत्र ''राजस्थान केसरी'' व सक्रिय कार्यकर्ताओं ...

THE SCHEDULED AREAS Villages of Udaipur district - अनुसूचित क्षेत्र में उदयपुर जिले के गाँव

अनुसूचित क्षेत्र में उदयपुर जिले के गाँव- अनुसूचित क्षेत्र में सम्मिलित उदयपुर जिले की 8 पूर्ण तहसीलें एवं तहसील गिर्वा के 252, तहसील वल्लभनगर के 22 व तहसील मावली के 4 गांव सम्मिलित किए गए हैं। ये निम्नानुसार है- 1. उदयपुर जिले की 8 पूर्ण तहसीलें (कोटड़ा, झाडोल, सराड़ा, लसाड़िया, सलूम्बर, खेरवाड़ा, ऋषभदेव, गोगुन्दा) - 2. गिर्वा तहसील (आंशिक) के 252 गाँव - S. No. GP Name Village Name Village Code Total Population Total Population ST % of S.T. Pop to Total Pop 1 AMBERI AMBERI 106411 3394 1839 54.18 2 AMBERI BHEELON KA BEDLA 106413 589 573 97.28 3 AMBERI OTON KA GURHA 106426 269 36 13.38 4 AMBERI PRATAPPURA 106427 922 565 61.28 5 CHEERWA CHEERWA 106408 1271 0 0.00 6 CHEERWA KARELON KA GURHA 106410 568 402 70.77 7 CHEERWA MOHANPURA 106407 335 313 93.43 8 CHEERWA SARE 106406 2352 1513 64.33 9 CHEERWA SHIVPURI 106409 640 596 93.13 10 DHAR BADANGA 106519 1243 1243 100.00 11 DHAR BANADIYA 106...