मेवाड़ में प्रजामंडल की राजनीतिक गतिविधियों में अपनी अग्रणी स्थिति बनाने से पहले राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया ने इंदुबाला सुखाड़िया के साथ अंतर्जातीय विवाह कर लिया। ब्यावर के शिक्षित एवं प्रगतिशील समाज के लोगों ने आर्य समाज की वैदिक रीति से यह विवाह 1 जून 1938 को संपन्न करवाया। अपने संस्मरणों में सुखाड़ियाजी ने लिखा है- " विवाह के बाद नाथद्वारा जाकर मां का आशीर्वाद पाना मेरा कर्तव्य था, जो मुझे सबसे अधिक भयपूर्ण और मानसिक रूप से कष्टप्रद लग रहा था, लेकिन मुझमें आक्रोश भी बहुत था। जो मां मुझे बचपन में स्नेह से पालती रही तथा हजारों कल्पनाएं मेरे लिए संजोती रहीं, वही आज मुझसे मिलने में आत्मग्लानि और मुंह देखने में घृणा तथा मौत की सी अनुभूति कर उठी है। मेरे लिए यह विषम परिस्थिति थी। इसमें मां का भी क्या दोष था? वह ऐसे ही वातावरण में पली थी। जीवन भर श्रीनाथजी की भक्ति एवं साधना में छुआछूत की पृष्ठभूमि में सतत संलग्न रही। वह भला मेरे इस विवाह से कैसे प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे सकती थी? और उनके इस व्यवहार के प्रति मेरा भी क्रोध कैसे शांत हो सकता था? दोनों ओर ही मजबूरी थी। मित्रों की मित्रता का परीक्षण भी इसी समय होना था। मुझे पता चला कि नाथद्वारा का वैष्णव समाज सक्रिय रूप से मेरा विरोध करने वाला था, लेकिन मेरे मित्रों ने इसकी तनिक भी परवाह नहीं की और मुझे एक बग्घी में वर और इंदु को वधू के वेश में बिठाकर मेरे चारों ओर घेरा बनाकर एक जुलूस निकाला। जुलूस नाथद्वारा के पूरे बाजार में घूमा। ‘मोहन भैया जिंदाबाद’ के नारे भी लगाए। पूरे शहर की परिक्रमा की। किसी भी विरोध में मित्रों के पैर नहीं उखड़े। शायद मुख्यमंत्री के रूप में ऐसा भव्य और अपूर्व उत्साहजनक जुलूस नहीं निकला वैसा यह अनोखा और विलक्षण जुलूस था।" इस प्रकार जात-पाँत और छुआछूत जैसी बुराइयों के प्रबल विरोधी सुखाड़ियाजी सामाजिक प्रगति व परिवर्तन के ऐसे पुरोधा थे जिन्होंने न केवल प्रगतिशीलता के लिए समाज में जागरूकता पैदा की अपितु समाज व परिवार के घोर विरोध के बावजूद अपने स्वयं के जीवन को जात-पाँत के बंधनों से मुक्त कर आदर्श प्रस्तुत किया। परिवार का विरोध काफी अर्से तक रहा किंतु बाद में उनकी माताश्री ने अपने पुत्र और पुत्रवधू को आशीर्वाद भी दिया। उनके निधन के पश्चात हुए लोकसभा चुनाव में श्रीमती इंदुबाला सुखाड़िया उदयपुर लोकसभा क्षेत्र से सांसद भी चुनी गई।
राजपूताना मध्य भारत सभा - इस सभा का कार्यालय अजमेर में था। इसकी स्थापना 1918 ई. को दिल्ली कांग्रेस अधिवेशन के समय चाँदनी चौक के मारवाड़ी पुस्तकालय में की गई थी। यही इसका पहला अधिवेशन कहलाता है। इसका प्रथम अधिवेशन महामहोपाध्याय पंडित गिरधर शर्मा की अध्यक्षता में आयोजित किया गया था। इस संस्था का मुख्यालय कानपुर रखा गया, जो उत्तरी भारत में मारवाड़ी पूंजीपतियों और मजदूरों का सबसे बड़ा केन्द्र था। देशी राज्यों की प्रजा का यह प्रथम राजनैतिक संगठन था। इसकी स्थापना में प्रमुख योगदान गणेश शंकर विद्यार्थी, विजयसिंह पथिक, जमनालाल बजाज, चांदकरण शारदा, गिरधर शर्मा, स्वामी नरसिंह देव सरस्वती आदि के प्रयत्नों का था। राजपूताना मध्य भारत सभा का अध्यक्ष सेठ जमनालाल बजाज को तथा उपाध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी को बनाया गया। इस संस्था के माध्यम से जनता को जागीरदारी शोषण से मुक्ति दिलाने, रियासतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना करने तथा जनता में राजनैतिक जागृति लाने का प्रयास किया गया। इस कार्य में संस्था के साप्ताहिक समाचार पत्र ''राजस्थान केसरी'' व सक्रिय कार्यकर्ताओं ...
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