Skip to main content

अति रमणीय प्राकृतिक सौन्दर्य का ख़जाना- सहेलियों की बाड़ी, उदयपुर (उदयपुर के बाग-बगीचे-3)

सहेलियों की बाड़ी उद्यान का भव्य बगीचा उदयपुर के महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय ने सन् 1710 -1734 के बीच राज परिवार की महिलाओं के आमोद-प्रमोद के लिए बनवाया था। इस कारण इसका नाम सहेलियों की बाड़ी रखा गया। उद्यान के बारे में यह भी कहा जाता है कि महाराणा ने इस सुरम्य उद्यान को तैयार करवा कर अपनी उन रानी साहिबा को भेंट किया, जो विवाह के बाद अपनी 48 नौकरानियों (सहेलियों) के साथ आई थी। यह देश के सुन्दरतम बगीचों में गिना जाता है,  जिसे देखकर उदयपुर राजघराने के अंतःपुर की महिलाओं की जीवन शैली का आभास स्वतः ही हो जाता है। वस्तुतः उदयपुर की प्रसिद्द झील फतेहसागर के नीचे कई छोटे-छोटे बगीचे थे, जिन्हे महाराणा फतेह सिंह ने सहेलियों की बाड़ी में मिला कर एक भव्य बगीचे का स्वरुप प्रदान किया। चारों तरफ हरी-भरी दूब, मनमोहक फूलों की कतारें, और आकर्षक फव्वारों पर पर्यटकों की स्वतः ही दृष्टि ठहर सी जाती है।  इस उद्यान का मुख्य आकर्षण यहाँ के फ़व्वारे हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि इन्हें लिवरपूल, इंग्लैण्ड से मंगवा कर यहाँ लगवाया गया था।  



हरियाली अमावस्या का मेला-

श्रावण मास की अमावस्या के अवसर पर इस बाड़ी में नगर निवासियों का एक 2 दिवसीय विशाल मेला भी लगता है, जिसे हरियाली अमावस्या का मेला कहा जाता है। इस मेले की विशेषता यह है कि दूसरे दिन का मेला केवल महिलाओं के लिए लगता है, इसमें पुरुषों का प्रवेश पूर्णतया वर्जित होता है। पूरे उदयपुर की महिलाओं के लिए यह दिन एक महोत्सव जैसे होता है। इस दिन उदयपुर के सुखाड़िया सर्किल, सहेलियों की बाड़ी, देवाली, फतेहसागर की पूरी पाल तथा मोती मगरी के इलाके में लगभग 7-8  किलोमीटर की परिधि में केवल महिलाओं का ही राज होता है तथा महिलाएं इस पूरे दिन भरपूर आनंद लेती है। बताया जाता है कि महाराणा फतेह सिंह जी के शासन काल में उनकी चावड़ी रानी के अनुरोध पर इस बगीचे में हरियाली अमावस्या के दूसरे दिन का मेला केवल महिलाओं के लिए लगना प्रारंभ हुआ था। 




1. वेलकम फाउंटेन-

इसमें स्थित प्रथम फव्वारे को वेलकम फाउंटेन कहा जाता है। यह मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश करते ही स्थित है तथा यह पर्यटकों के बगीचे में प्रवेश करने पर उनके स्वागत के लिए चलाया जाता है। 


2. बिन बादल बरसात फाउंटेन एवं महल -



द्वितीय फव्वारे को बिन बादल बरसात फाउंटेन कहते हैं। इसमें से जब पानी गिरता है तो ऐसे आभास होता है कि जैसे बरसात हो रही है। बिन बादल बरसात फव्वारा में मुख्य फव्वारा एक जल कुंड के मध्य में सफ़ेद मार्बल का छतरीनुमा बना हुआ है जिसमें ऊपर एक कबूतर बना है। फव्वारे की आकर्षक नक्काशी में बेल बूटे उत्कीर्ण किए गए है। इसके चारो ओर काले प्रस्तर की छतरियाँ निर्मित है, जिन पर भी सुन्दर नक्काशी की गई है। 


महल -

इस फव्वारे के पीछे महाराणा की रानियों व उनकी सहेलियों के लिए एक महल बना हुआ है, जिसमें नीचे एक हॉल तथा तीन-चार कक्ष हैं। हॉल में एक अति सुन्दर मयूराकृति बनी है। इस महल के इस हॉल में कुछ समय पूर्व तक राजस्थान राज्य अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण संस्थान (SIERT) द्वारा एक सामुदायिक विज्ञान केंद्र संचालित किया जाता था जिसे हटा कर अब वर्तमान में कलांगन नामक संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया है। 


इस महल की दूसरी मंजिल पर पर भी रानियों और दासियों के उपयोगार्थ कई कक्ष, झरोखें व बरामदे निर्मित है। इन कक्षों व बरामदों की दीवारों पर आकर्षक चित्रकारी की हुई है, जिसमें कमल के पुष्पों का अंकन, बेलबूटे, शिकार के दृश्य आदि हैं। महल के अंदर ही पीछे की तरफ भी एक छोटा सा बगीचा है जिसमें फव्वारे व  सीढ़ियों से युक्त एक छोटा सा कुण्ड है जो संभवतया रानियों के स्नान के लिए उपयोग में होता होगा। 


3. सावन भादो फाउंटेन-


तृतीय फव्वारे को सावन भादो फाउंटेन कहा जाता है। इसमें पानी चलने पर उसकी आवाज सावन भादों माह में होने वाली रिमझिम बारिश का अनूठा आभास प्रदान करती है। 




4. कमल तलाई-




चतुर्थ फव्वारे को कमल तलाई कहते हैं। यह बगीचे में स्थित महल के पीछे बना हुआ है।  इसमें एक छोटा सा कुंड बना है जिसमें चारों कोनों पर संगमरमर के चार हाथी लगाएं गए  हैं जो इसकी भव्यता में अभिवृद्धि करते है हैं।  इन चारों हाथियों की सूंड से फव्वारों के रूप में पानी गिरता है। इस तलाई में बड़े ही आकर्षक कमल के फूल खिलते हैं। 



संगमरमर का अति सुन्दर सिंहासन-

 


कमल तलाई के सामने संगमरमर का अति सुन्दर सिंहासन बना है जिस पर जालीदार आकर्षक नक्काशी की गई है।


5. रास लीला फव्वारा -

पंचम फव्वारे को रास लीला कहते हैं। पहले इसके चारों ओर नृत्य किया जाता था तथा रानियाँ महल के झरोखों (गोखड़ो) में से देखकर नृत्य का आनंद लिया करती थी।


ग्रेविटी से संचालित होते हैं यहाँ के फव्वारे -

 

इस बगीचे की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसके सभी फव्वारें फतेहसागर के पानी की ग्रेविटी से संचालित होते है तथा इनके चलाने में किसी मोटर की आवश्यकता नहीं होती है। 



Popular posts from this blog

Baba Mohan Ram Mandir and Kali Kholi Dham Holi Mela

Baba Mohan Ram Mandir, Bhiwadi - बाबा मोहनराम मंदिर, भिवाड़ी साढ़े तीन सौ साल से आस्था का केंद्र हैं बाबा मोहनराम बाबा मोहनराम की तपोभूमि जिला अलवर में भिवाड़ी से 2 किलोमीटर दूर मिलकपुर गुर्जर गांव में है। बाबा मोहनराम का मंदिर गांव मिलकपुर के ''काली खोली''  में स्थित है। काली खोली वह जगह है जहां बाबा मोहन राम रहते हैं। मंदिर साल भर के दौरान, यात्रा के दौरान खुला रहता है। य ह पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है और 4-5 किमी की दूरी से देखा जा सकता है। खोली में बाबा मोहन राम के दर्शन के लिए आने वाली यात्रियों को आशीर्वाद देने के लिए हमेशा “अखण्ड ज्योति” जलती रहती है । मुख्य मेला साल में दो बार होली और रक्षाबंधन की दूज को भरता है। धूलंड़ी दोज के दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु बाबा मोहन राम जी की ज्योत के दर्शन करने पहुंचते हैं। मेले में कई लोग मिलकपुर मंदिर से दंडौती लगाते हुए काली खोल मंदिर जाते हैं। श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित एक पेड़ पर कलावा बांधकर मनौती मांगते हैं। इसके अलावा हर माह की दूज पर भी यह मेला भरता है, जिसमें बाबा की ज्योत के दर्शन करन

राजस्थान का प्रसिद्ध हुरडा सम्मेलन - 17 जुलाई 1734

हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरूद्ध क

Civilization of Kalibanga- कालीबंगा की सभ्यता-
History of Rajasthan

कालीबंगा टीला कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में घग्घर नदी ( प्राचीन सरस्वती नदी ) के बाएं शुष्क तट पर स्थित है। कालीबंगा की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता का काल 3000 ई . पू . माना जाता है , किन्तु कालांतर में प्राकृतिक विषमताओं एवं विक्षोभों के कारण ये सभ्यता नष्ट हो गई । 1953 ई . में कालीबंगा की खोज का पुरातत्वविद् श्री ए . घोष ( अमलानंद घोष ) को जाता है । इस स्थान का उत्खनन कार्य सन् 19 61 से 1969 के मध्य ' श्री बी . बी . लाल ' , ' श्री बी . के . थापर ' , ' श्री डी . खरे ', के . एम . श्रीवास्तव एवं ' श्री एस . पी . श्रीवास्तव ' के निर्देशन में सम्पादित हुआ था । कालीबंगा की खुदाई में प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस उत्खनन से कालीबंगा ' आमरी , हड़प्पा व कोट दिजी ' ( सभी पाकिस्तान में ) के पश्चात हड़प्पा काल की सभ्यता का चतुर्थ स्थल बन गया। 1983 में काली